दो ख़बरें एक साथ आई. उडी में सेना पर आतंकी हमले में सैनिक शहीद हुए और देश शोक में डूब गया. उसके अगले दिन महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की मांग को लेकर अभूतपूर्व प्रदर्शन हुआ. कुछ अजीब लगा कि एक तरफ सेना के जवान शहीद हुए हैं दूसरी तरफ आरक्षण को लेकर प्रदर्शन. क्या आरक्षण आन्दोलन के नेता इस प्रदर्शन को सेना के सम्मान में स्थगित नहीं कर सकते थे. फिर मन को समझा लिया कि हमला आचानक था और प्रदर्शन पूर्व-निर्धारित, शायद इसीलिए प्रदर्शन स्थगित नहीं हो पाया.
इसके कुछ समय बाद फिर से दो ख़बरें लगभग एक साथ आई. लगभग एक साथ इसलिए कि दोनों ख़बरों में कुछ दिन का अंतर था. भारत ने उड़ी हमले के विरोध में पकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक की और सेना के अधिकारीयों ने बाकायदा प्रेस कांफ्रेस करके इसकी जानकारी देश को दी. बचावकारी डिप्लोमेसी से दबंग डिप्लोमेसी की तरफ यह एक बड़ा कदम था. बिलकुल वैसा ही जैसा हम रूस, जापान, चीन, अमेरिका, जर्मनी, फ़्रांस आदि देशों को करते हुए देखते हैं.पहले विपक्ष ने इस कदम की सराहना की लेकिन उसके बाद सरकार को मिलता राजनैतिक लाभ देखकर पकिस्तान के सुर में सुर मिलाते हुए सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठाये और सेना से इस सर्जिकल स्ट्राइक का सुबूत मांग लिया गया. इसी बीच राहुल गाँधी ने सेना के खून की दलाली का आरोप सरकार पर चस्पा कर दिया. शायद राजनैतिक नुक्सान का डर नेताओं को अपने देश के खिलाफ भी खड़ा कर सकता है. देश के नेताओं के समर्थन में पकिस्तान से ट्विटर पर ट्रेंड होते देखना एक शर्मनाक घटना थी. इस मामले में मेरे एक मित्र ने लिखा “जब मेरे देश की सेना के डीजीएमओ ने कह दिया कि सर्जिकल स्ट्राइक हुई है तो मुझे किसी नेता के बयान या ऑपरेशन के विडिओ की जरुरत नहीं.” (हालाँकि मुझे व्यक्तिगत रूप से इन मित्र से ऐसे किसी बयान की उम्मीद नहीं थी क्योंकि वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकार भी हैं और पारदर्शिता के पक्षधर भी.) उनका लिखा पढ़कर अच्छा लगा. उन्हें सेना पर भरोसा था जो शायद हमारे नेताओं को नहीं है.
अगर इस देश में कोई एक संगठन है जो पूरी तरह अराजनैतिक, धर्म-निरपेक्ष, जातिनिरपेक्ष और हर जिम्मेदारी को जी जान से निभाने वाला है तो वह भारतीय सेना है इस बात पर अधिकांश लोग सहमत होंगे. भले ही यह सीमा से जुड़ी कोई समस्या हो या देश की आतंरिक स्थित का कोई संकट, कोई रेस्क्यू ऑपरेशन हो या चेन्नई में बाढ़ जैसी कोई आपदा हो,सेना हमेशा वहां सीना तान कर खड़ी होती है. सेना को बुलाया ही तब जाता है जब कोई और उपाय न बचे लेकिन हर बार सेना के जवान स्थिति से ऐसे निपटते हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं.
जब सेना किसी भीड़ या दंगे के हालत में उतरती है तो सेना और दंगाइयों के बीच का रेश्यो लगभग एक मुकाबले बीस का होता है. और सेना आज तक असफल नहीं हुई. लेकिन जब यही सेना कारगिल की पहाड़ियों में लड़ रही थी तो सफल होने वाले सैनिकों का रेश्यो सौ के मुकाबले दस का था. इसका मतलब है कि अगर किसी पहाड़ी पर कब्ज़ा करने के लिए दस सैनिकों की जरुरत है तो उस पहाड़ी पर कम से कम सौ जवानों की एक टुकड़ी हमला करे तब यह संभव है कि उनमें से दस या पंद्रह ऊपर पहुँच जाएँ. और सेना यहाँ भी असफल नहीं हुई.
जब ये सौ लोग हमले की शुरुआत करते हैं और अपने आसपास देखते हैं तो वे जानते हैं कि इन सौ लोगों में से केवल मुट्ठी भर लोग ही इस जीत का जश्न मना पायेंगे. बाकियों में से अधिकतर की पनाहगाह तिरंगा होगा या वे उस से भी बुरी हालत में हो सकते हैं. शायद उम्र भर के लिए अपाहिज. इसके बावजूद वे पीछे नहीं हटते. वे ख़त लिखते हैं, अपने माँ बाप को, भाई बहनों को, अपनी पत्नी को, अपने बच्चों को और कभी कभी अजन्मे बच्चों को भी. ख़त को मोड़ कर जेब में डालते हैं और बन्दूक में गोलियां भरके एक जोरदार नारे के साथ अभियान की शुरुआत कर देते हैं.
सवाल यह है कि आखिर कैसे ये सैनिक इतने जोश से लड़ पाते हैं? इस सवाल का जवाब नेताओं से पूछेंगे तो वे बड़ा सपाट और रोमांटिक सा जवाब देंगे कि सैनिक ऐसा देश के लिए करते हैं. इन्हीं देश के कर्णधारों के सामने देश का नक्शा फैलाकर आप उनसे पूछें कि बताइये कहाँ हुई थी कारगिल की लड़ाई? कहाँ है सियाचिन? कहाँ है इस नक़्शे में उड़ी? तो अधिकांश नेता इसका जवाब नहीं दे पायेंगे.
एक लड़का जब सेना में आता है तो उसके साथ उसका क्षेत्रबोध और जातिबोध भी सेना में जाता है. वैसे जातिबोध से ज्यादा यह परंपरा का मामला होता है. हमारे घरों में हमें बताया जाता है कि हम दूसरों से अलग हैं क्योंकि हम इस जाति, धर्म, क्षेत्र में पैदा हुए हैं. लेकिन सेना में पहुँचते ही इस लड़के को एक बड़ा सा मग दे दिया जाता है जो उसका शेविंग मग भी होता है और यही पानी पीने का का मग भी, यही उसका कॉफ़ी पीने का मग होता है और यही उसके नहाने के काम आता है. उस पर तुर्रा यह कि शाम को ये सब मग एक जगह इकट्ठे हो जाते हैं. यानी आप नहीं जानते कि जिस मग में आप कॉफ़ी पी रहे हैं कल उसमें किसी दूसरे जवान ने क्या किया था? यह आपके लिए अजीब हो सकता है लेकिन एक सैनिक के लिए नहीं. बिलकुल उसी तरह जैसे आप जख्मी हों तो आप डॉक्टर की जाति, धर्म नहीं पूछते. इस तरह एक जातियों और धर्मों में बंटे समाज की रक्षा करने वाली सेना पूरी तरह धर्म और जातिनिरपेक्ष है.
उदहारण के लिए ‘1 सिख रेजिमेंट’ को लें, जो सेना की सबसे सम्मानित और पुरानी सिख यूनिट है. यह वही यूनिट है जिसे 1947 में कश्मीर में कबायलियों की आड़ में हुए पाकिस्तानी हमले के खिलाफ उतारा गया था. इसी यूनिट ने श्रीनगर में हमलावरों को रोक कर कश्मीर को भारत के नक़्शे पर बचा लिया. बेहतरीन खालसा लड़ाकों की यह यूनिट एक मुस्लिम कमांडर के नेतृत्व में लड़ रही थी. यह मुस्लिम कमांडर उन्हें केवल लड़ाई के मैदान में नहीं बल्कि रोज सुबह गुरूद्वारे में गुरुबानी में भी लीड करता था क्योंकि सेना में यही संस्कृति है. अपना कोई धर्म नहीं. जिस यूनिट में हो उसी के अनुसार बन जाओ.
उदाहरण तो बहुत हैं, जैसे ‘३ जाट रेजिमेंट’ को ले सकते हैं. 1965 के मिलिट्री ऑपरेशन में इस यूनिट को एक अहम् जिम्मेदारी मिली और हमेशा की तरह यह एक मुश्किल जिम्मेदारी थी. एक मुश्किल लोकेशन ‘डोगरे’ को कब्जे में लेना. यह लड़ाई भारतीय सेना द्वारा लड़ी गई सबसे मुश्किल लड़ाइयों में से एक गिनी जाती है क्योंकि यह लड़ाई कोई गोलीबारी या तोपों से बरसते बमों तक सीमित लड़ाई नहीं थी बल्कि इसमें एक एक गली में, एक एक घर में घुसकर, आमने सामने से हाथापाई के स्तर तक सेना को लड़ना पड़ा था. डोगरे पर कब्ज़ा इतना जरुरी था कि जब ‘3 जाट रेजिमेंट’ के एंग्लो इन्डियन कमांडर डेसमंड हेस ने अपने सिपाहियों को इसके बारे में बताया तो उनका कहना था “आज शाम तक हमें डोगरे पहुंचना है…………… जिन्दा या मुर्दा.”
और ब्रीफिंग के बाद एंग्लो इन्डियन कमांडर ने अपने जात सैनिकों से टिपिकल हरियाणवी में पूछा “अबे सुसरो 3 जाट आज रात को कहाँ होगी?”
और पूरी 3 जाट रेजिमेंट चिल्लाई “डोगरे, डोगरे”
कमांडर चाहते थे कि किसी भी हालत में यह अभियान पूरा होना है. इसलिए एंग्लो इन्डियन कमांडर ने फिर पूछा “अबे सीओ साब के गोली लाग गी फेर के करोगे?”
पलक झपकने का समय गँवाए बिना भी कमांडिंग जेसीओ चिल्लाया “सीओ साब ने काँधे पे टांग लेंगे पर रुकेंगे जाके डोगरे ही.”
और उस रात को 3 जाट डोगरे में थी. इस इकलौती लड़ाई में 3 जाट रेजिमेंट को 3 महावीर चक्र, 4 वीर चक्र और 7 सेना मैडल मिले थे. इन सब मेडलों की कीमत बहादुर सैनिकों की जिंदगी थी.
सैनिक अपने नाम के लिए नहीं लड़ते जो उनकी छाती पर होता है. वे लड़ते हैं उस नाम के लिए जो उनके कंधे पर होता है, उनकी पलटन का नाम. उन्होंने ने जो यूनिट ज्वाइन कर ली वे वही बन जाते हैं. वे मराठा यूनिट में मराठा बन जाते हैं, गोरखा यूनिट उन्हें गोरखा बना देती है तो सिख यूनिट में वे सिख के आलावा कुछ नहीं होते. खुद मेरे लिए यह समझना मुश्किल था कि एक ब्राह्मण परिवार से होने के बावजूद पापा आर्मी से रिटायर होने के बाद भी सरदारों जैसी वेशभूषा में क्यों रहते थे? उनकी पगड़ी उन्हें सबसे ज्यादा प्यारी थी क्योंकि वे सिख रेजिमेंट का हिस्सा थे. यूनिट में धर्म, जाति, क्षेत्र गोत्र कुछ मायने नहीं रखता. और ऐसा नहीं है कि केवल जंग के मैदान में ही ऐसे होता हो. सेना में यही संस्कृति है.
1992 में हिमाचल के परवानू में जब एक केबल कार की तीन में से दो केबल टूट जाने के कारण यह केबल कार जमीन से 4620 फीट ऊपर हवा में लटकी थी तो इसमें बैठे सभी पर्यटक हिन्दू थे. वे अपने भगवान् से अपनी सलामती के लिए प्रार्थना कर रहे थे. तभी उन्हें सेना के हेलिकोप्टर की आवाज सुनाई थी. ठक, ठक, ठक, ठक, ठक, ठक, ठक, ठक, ठक, ठक……..,
उस हेलिकोप्टर से कैप्टन आइवन क्रिस्टो एक रस्सी के सहारे उतरे. केबल कार में घुसकर उन्होंने एक एक करके पर्यटकों की जान बचाई. लेकिन अँधेरा घिर जाने के कारण अभियान को तब बीच में रोकना पड़ा जब कार में केवल एक यात्री बचा था. जमीन से 4620 फीट ऊपर एक अकेले यात्री को सारी रात उस केबल कार में काटनी थी जो केवल एक रस्सी के सहारे हवा में लटकी थी. उसके डर को देखते हुए कैप्टन आइवन क्रिस्टो खुद उसके साथ केबल कार में आकर बैठ गए. वे पूरी रात उसी हवा में झूलती केबल कार में रहे. सूरज उगने पर यात्री को केबल कार से निकाल लिया गया. भगवान् से प्रार्थना करते इन हिन्दू पर्यटकों को एक क्रिश्चियन कमांडो ने बचाया और जिस हेलिकोप्टर ने इस क्रिश्चियन कमांडो को नीचे उतारा उसे चलाने वाला पायलट पारसी मेजर था.
सेना में कोई मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर या गुरुद्वारा अकेला नहीं होता. वहां सर्व-धर्म स्थल बनाया जाता है जहाँ हर धर्म के अनुसार इबादत होती है. यहाँ एक मौलवी पंडित का काम करता है तो कोई पंडित किसी गुरुद्वारे में ग्रंथी का काम करते हुए मिल सकता है. उन्हें फर्क नहीं पड़ता और शायद भगवान, खुदा, ईसा और वाहेगुरु को भी नहीं. लेकिन जब यही सैनिक घर आता है तो उसे एक अलग दुनिया मिलती है. उसका राजनेता, उसका धार्मिक नेता, उसका दोस्त, उसका परिवार उसे एक अलग कहानी सुनाते हैं. वे उसे बताते हैं कि अमुक जाति सारी नौकरियां ले जाती है.वह धर्म ख़राब है. ये लोग हमसे अलग हैं क्योंकि उनका रहन सहन ऐसा है. वे उसे समझाते हैं कि बचे रहना है तो अपनी जाति अपने धर्म और अपने लोगों का ख्याल रखो.
कोई भी सैनिक अपनी लड़ाई किसी आग उगलते हथियार से नहीं लड़ता. वह अपनी लड़ाई ऊंचे नैतिक मूल्यों से लड़ता है. सैनिक इसलिए नहीं लड़ता कि उसे सामने खड़े दुश्मन से नफरत है, वह इसलिए लड़ता है कि उसे अपने पीछे खड़े लोगों से प्यार है. नेताओं का अपना एक एजेंडा हो सकता है. कुछ लोग चुनाव जीतना चाहते हैं. कुछ लोग सत्ता की ताकत का इस्तेमाल ‘अपने लोगों’ के लिए करना चाहते हैं. लेकिन एक सैनिक का अपना क्या एजेंडा है? सिवाय जिम्मेदारी उठाने के? और जरुरी हो तो वही जिम्मेदारी उठाते हुए जान दे देने के.
एक नागरिक के तौर पर हमारा फर्ज है कि हम इसे समझें. बिलकुल इसी वक्त जब आप यह लेख पढ़ लेख पढ़ रहे हैं कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हमारे सैनिक हर तरह के मौसम में तैनात हैं. और वे अपनी लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं, वे हमारी लड़ाई लड़ रहे हैं. यह लड़ाई सीमा पर किसी तनाव की मोहताज नहीं है. सीमा पर तनाव है तो खबरिया न्यूज चैनलों के कैमरे आपको पल पल की खबर देते हैं लेकिन एक सैनिक तब भी लड़ाई लड़ रहा है जब सामने दुश्मन नहीं है. क्योंकि तैनाती के अधिकतर क्षेत्रों में शांति काल नहीं होता. वहां हर समय चौकन्ना रहना होता है. आने वाले दुश्मन के खिलाफ. जहाँ दुश्मन नहीं होता वहां यह लड़ाई मौसम के खिलाफ चलती है. शून्य से पचास डिग्री नीचे के तापमान से लेकर शून्य से साठ डिग्री ऊपर की चिलचिलाती गर्मी तक, सब कुछ एक सैनिक अपने बदन पर सहता है. लेकिन वह शिकायत नहीं करता, तब भी नहीं जब उसे सेना से रिटायर होने के बाद अपना हक मांगने के लिए जंतर मंतर पर भूख हड़ताल के लिए आना पड़े.
इस तरह हमारे सैनिक एक साथ कई मोर्चों पर तैनात हैं. बाहरी दुश्मन के खिलाफ, आतंरिक दुश्मन के खिलाफ, मुश्किल परिस्थितियों में देश वासियों की जान बचाने वाले ऑपरेशन में, प्राकृतिक आपदा में और कभी कभी जंतर मंतर पर भी उसे आना पड़ता है. अब उसके खिलाफ ये राजनीति का नया मोर्चा न खोलें तो बेहतर होगा क्योंकि वह इस चक्रव्यूह में उलझा तो सीमायें खाली हो जायेंगी. हालाँकि कोशिश तो पहले भी हुई है सेना में जातिआधारित गणना के नाम पर सेना को बांटने की. राजनैतिक पार्टियों के आपसी मतभेद हो सकते हैं लेकिन सेना किसी पक्ष या पार्टी से नहीं है.अपनी विरोधी पार्टी के नाम पर सेना को निशाने पर न लें. और जहाँ तक सर्जिकल स्ट्राइक के सुबूत की बात है जैसा कि मेरे मित्र ने कहा था “मेरी सेना के डीजीएमओ के बयान के बाद मुझे किसी नेता के बयान या विडियो की जरुरत नहीं.”
Sahi kha bhaiya ji
Rajnitik fayda name milta dekh kr ye log itna b bhul gye h ki vo Indian army pr question kr rhe h
Border movie to koi nhi bhula hoga
Ye vhi Indian army jiske 120 jawan ne Pakistan know 150 tank ko raat bhar rok kr rkha tha