मौत का राग…..

मौत…. मृत्यु नहीं.

मौत शब्द इसलिए चुना है क्योंकि मौत में एक खटास है. मृत्यु संभ्रात शब्द जैसा लगता है. मौत शब्द उस एक घटना की तमाम भयानकता, तमाम अक्खड़ता और तमाम असाधारण सी साधारणता अपने अन्दर समेटे है.
कहते हैं जिन्दगी अच्छे से जीनी है तो मौत को याद रखो. लेकिन समाज/संगीत/साहित्य/फिल्म कहीं भी तो मौत पर बात करने को कोई तैयार नहीं. कभी किसी अंत्येष्टि में जाना भी पड़े तो श्मशान घाट के अन्दर भी काम की चर्चा होती रहती है या अधिक से अधिक वहां ख़ामोशी पसरी रहती है. मौत पर बात करना जैसे गुनाह है. यही चलन घरों में है. वही चलन फिल्मों में है. कभी किसी फिल्म में “क्या है मृत्यु?” जैसा कोई सवाल उठाया भी गया तो उसे वीर रस की चाशनी में लपेट कर असली जवाब से दूर खड़ा कर दिया गया. संगीत में भी यह कभी कभार ही चर्चा के केंद्र में आती है. कभी कभार लकी अली जैसा कोई संगीतकार “मौत” (फिल्म कांटे) जैसा कोई गीत लिखता है तो गहराई से जरा दूर छिछले पानी में खड़ी फिल्म की कहानी हंसने लगती है. कभी कभार गुलजार साहब “ना लेके जाओ मेरे दोस्त का जनाजा है” (फिल्म फिजा) कहकर जिक्र छेड़ते हैं तो फिल्म निर्देशक पूरे गाने को फिल्म में लेने से डर जाते हैं. लब्बोलुबाब यह कि जिस घटना के जिक्र पर जिन्दगी की रफ़्तार रुक जाए उसका जिक्र ही रोक दिया गया है.

लेकिन लोकगीत अक्सर ऐसे मामलों पर बेबाकी से बोलते भी हैं और अक्खड़ स्थानीय भाषा में बड़े नाजुक मसलों पर यथार्थवाद के आगोश में बैठकर विचारों का सृजन भी कर लेते हैं. अक्सर लोकगीत प्रेम, जीवन, अध्यात्म, दया, विवेक, दानशीलता, वीरता, मौत पर असाधारण रूप से बेहतरीन रचनाएँ सामने लाते हैं. एक ओर संसाधनों की सीमितता के कारण लोकगीत बड़े मंच पर नहीं आ पते तो दूसरी ओर भाषा की सीमित समझ के कारण हम उसे समझने में नाकाम रहते हैं. उत्तर प्रदेश हो या पंजाब, हरियाणा हो या राजस्थान हर जगह लोकगीत इतने ही खूबसूरत हैं.

ऐसा ही एक लोकगीत पंजाब की मिटटी में उपजा है. हजारों बार सुन चुका हूँ. हर बार नया लगता है. बहुत से दोस्तों से इस पर चर्चा भी कर चुका हूँ, लेकिन बात हमेशा अधूरी रह जाती है. कभी लगता नहीं कि जो बात इसमें कहने की कोशिश की गई है उसके महीन रेशमी सिरे को विचारों की उँगलियाँ पकड पा रही हैं. खैर! भाषायी समस्या को दूर करने के लिए गीत के साथ उसका अनुवाद भी लिख रहा हूँ. आप भी देखिएगा कि क्या मौत का जिक्र वाकई खूबसूरत है या यह केवल मेरा ही दिमागी खलल है…..

जेहडी मौत डायन ने कुल दुनिया नू खा लिया है,
इस जिन्द दा की भरवासा है,
जिवें पानी विच पतासा है,
सिर उते भी काल गंडासा है,
दोस्तों चक लो चक लो हो जाऊ,
बन्दे दा जद उड़ गया भंवर शरीर चों…..
(जेहडी-जिस, नू-को, दा-का, भरवासा-भरोसा, जिवें-जैसे, विच-बीच, उते-ऊपर, चक लो- उठा लो (शमशान ले जाने के लिए), भंवर-आत्मा रुपी भंवरा, चों-में से)
अर्थ:- मौत की तुलना एक डायन से करते हुए कहा गया है कि आखिर जिन्दगी का भरोसा क्या है? जैसे पानी के बीच में पतासा छोड़ दिया गया हो जो कभी भी घुल सकता है या असमय डूब तो सकता ही है. सर के ऊपर काल का गंडासा (तलवार) है जो कब गिर जाये पता नहीं. और एक बार आत्मा शरीर से निकली तो सब खेल ख़त्म. सब मित्रों-दोस्तों, नाते-रिश्तेदारों को केवल एक चिंता रह जायगा कि ‘इन्हें जल्दी उठाकर शमशान ले चलो.

जेहडी मौत डायन ने कुल दुनिया नू खा लिया है,
इक दिन तेरे बिलकुल नेड़े बीबा औणी,
चित नहीं करना तेरा भरया मेला छड़ने नू,
नाल जमा दे पा के बैजेंगा उडौनी.
(नेड़े-करीब, बीबा-दोस्त, औणी-आयगी, चित-मन, भरया-भरा हुआ, छड़ने नू- छोड़ने को, नाल-साथ, जमा-यमदूत, बैजेंगा-बैठ जायगा, उडौनी-उड़ान के लिए)
अर्थ:- जिस मौत डायन ने इस पूरी दुनिया को खा लिया है वह एक दिन तेरे भी बिलकुल करीब आयगी, उस से बचाव का कोई उपाय नहीं है. दुनिया का भरा हुआ मेला, संगी साथी दोस्त परिवार-घर, कुछ भी छोड़कर जाने का तेरा मन नहीं होगा लेकिन फिर भी यमदूतों के साथ उस लम्बी उड़ान पर तुझे जाना होगा. जीने की इच्छा मौत को ताल नहीं सकती उस दिन.
वैद्य हकीमां दे हथ नब्जां फड़ियाँ रहन गियां,
पीर फ़कीर किसे नहीं तुरदी रूह अटकौनी.
फर्ज निभा के मल्लो मल्ली विदा हो जाऊगी,
व्याह विच आई हुई है मेलन जिन्द परौहनी.
(हथ-हाथ, फड़ियाँ-पकड़ी, रहन गियां-रह जाएँगी, तुरदी-जाती हुई, अटकौनी-रोकना, मल्लोमल्ली-जबरदस्ती, व्याह-शादी मेलन-दुल्हन, परौहनी-मेहमान)
अर्थ:- उस दिन वैद्य हकीम हाथों में नब्ज पकड़ कर बैठे होंगे, तेरी दवाई इलाज चल रहा होगा, कोई पीर फ़कीर दुआ भी कर रहा होगा तो भी इनमें से कोई उस दिन जाती हुई रूह को रोक नहीं पायगा. उस दिन का जाना बिलकुल वैसा ही होगा जैसे शादी की रस्में पूरी होने पर भले ही दुल्हन के पिता की मर्जी न हो भले ही दुल्हन पिता के घर रुकना चाहती हो और कितना भी रोटी हो, विदाई हो ही जाती है. ऐसे तुझे जाना होगा, उस दिन कोई वश नहीं चलने वाला.

हाय-बूह, भैडया धिमका मर गया मर गया हो जाऊगी,
सारे दोस्त गवांडी आ बैठन गे दौनी,
पत्तल आधी अफीम दी, तिन तिन सूट दिहाड़ी दे, गल मुक गई,
कफ़न सरोपा उत्ते दो गज चादर पौनी.
(हायबूह-रोने का स्वर, भैडया-भैया, धिमका-फलाना धिमका, गवांडी-पडोसी, दौनी-पैरों की तरफ, तिन-तीन, सरोपा-सिख धर्म में सर्वोच्च सम्मान के रूप में दिया जाने वाला कपडा, उत्ते-ऊपर, पौनी-डाली जायगी)
अर्थ:- उस दिन सब रोते हुए एक दुसरे को बताएँगे कि अमुक व्यक्ति (साधारण भाषा में फलाना धिमका) मर गया है. एक बार यह खबर फ़ैल गई तो तुझे जमीन पर लिटा कर तेरे पैरों की तरफ सब लोग आकर बैठ जायेंगे. इस से पहले जो तू दिन में आधी पत्तल अफीम लेता था और रोज के तीन बार कपडे बदलता था वह इस दिन नहीं होगा. उस दिन कोई सरोपा भी तुझे ओढने को नहीं मिलेगा केवल एक सफ़ेद रंग की दो गज चादर होगी जो तेरे ऊपर डाली जायगी. (कुछ समय पहले तक भी पंजाब के अन्दर अफीम साधारण खानपान का हिस्सा थी)

नाल बेसब्री करू उडीकां धरती सिव्याँ दी,
अर्थी चौ जन्याँ ने मोढ्याँ उत्ते उठौनी.
विच गदैले दे रही चुभदी रडक बड़ेमे दी, गल मूक गई,
सेज तैनूं गोहे लक्कड़ा दी बिछौनी.
(उडीकां-इन्तजार, सिव्याँ-शमशान, चौ जन्याँ ने-चार जनों ने, मोढ्याँ उते-कंधे के ऊपर, गदैले-गद्दे, रडक-चुभन, बाड़मे-बिनौला (रुई का बीज), गोहे लक्कड़-गोबर और लकड़ी)
अर्थ:-उस दिन श्मशान की धरती बहुत बेसब्री से तेरा इन्तजार करेगी, लेकिन तू खुद उठाकर वहां नहीं जा सकता चार लोग कन्धा देकर तुझे वहां तक पहुंचाएंगे. अब तक तो गद्दे के अन्दर कभी गलती से रुई का कोई बीज भी आ जाता था तो तुझे चुभन महसूस होती थी, अब यह नहीं होगा. बल्कि उस दिन तो सेज ही गोबर के कंडे और लकड़ी के टुकड़ों की होगी. लेकिन तू किसी चुभन की शिकायत नहीं कर पायगा.

उत्ते पा के घी कक्ख काने सिटने मित्तरां ने,
अग्ग नी सक्याँ ओये अम्मा दे जाया लौनी.
एह है आखिर सोन्याँ बांकया तेरी जिन्दगी दा,
पारस कहंदा माना छड्ड दे बदी कमौनी.
(पा के-डाल के, कक्ख काने-लकड़ी के छोटे छोटे टुकड़े, सिटने-फेंकेंगे, अग्ग-आग, सक्या अम्मा दे जाया-सगे सम्बन्धी, लौनी-लगायेंगे, बदी कमौनी-गलत काम करने)
अर्थ:-इसके बाद तेरे ऊपर घी डालकर छोटी छोटी लकड़ियाँ रखी जायेंगी, और यह सब तेरे अपने दोस्त करेंगे. फिर जब आग लगाईं जायगी तो लगाने वाला कोई गैर नहीं तेरे अपने सगे सम्बन्धी होंगे. यही जिन्दगी का अंत है. इसलिए पारस (लेखक) तुझसे कहता है कि बुरा काम मत कर.

हथ तां बन्ह्दे हाँ, ओये अर्जां करदे तेरियां,
मर गया दिया जग ते ढेरियाँ,
उप्परों दी झुल्लन हनेरियां,
तेरी सौं दोस्ता दस दम दा विसाह की?
(बन्ह्दे-बांधते, अर्जां-विनती, झुल्लन-चलती है, हनेरियां-आंधियां, सौं-कसम, दस-बता, विसाह-भरोसा)
अर्थ:- शायर तो केवल हाथ बाँध के अर्ज ही कर सकता है वही कर रहा है. दुनिया में मुर्दों का ढेर है, हर जगह, वहां भी जहाँ तुम खड़े हो. मरने के बाद हजारों आंधियां आइन और आज हर उस जगह बस्ती है जहाँ कभी किसी को जलाया गया था. आखिर इस जिन्दगी का भरोसा क्या है? तो ये सब हवस किसलिए?
जो दोस्त इस लोकगीत को सुनना कहेंगे उनके लिए विडियो का लिंक भी रहा हूँ. सुनियेगा. सोचियेगा.

About Satish Sharma 44 Articles
Practising CA. Independent columnist in News Papers. Worked as an editor in Awaz Aapki, an independent media. Taken part in Anna Andolan. Currently living in Roorkee, Uttarakhand.

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