पंजाब इतना उड़ता क्यों है?

अच्छी फिल्मों के अंत अक्सर खराब होते हैं. किसी भी अच्छे मुद्दे को उठाकर उसे तार्किक परिणति तक पहुँचाना सबके बस में नहीं होता. अक्सर कोई भी बड़ा या भावनात्मक मुद्दा उठाने के बाद या तो कहानी को लेकर होने वाली प्रतिक्रिया डायरेक्टर की प्रतिभा को दब्बू बना देती है या फिर मुद्दे को लेकर भावनात्मक जुड़ाव के कारण डायरेक्टर अक्सर मद्दे का रोमांटिक हल निकालने में उलझ जाते हैं. आरक्षण, सत्याग्रह और ना जाने कितनी फ़िल्में इसी तरह बर्बाद हो गई. अभिषेक चौबे की ‘उड़ता पंजाब’ इस मामले में अपवाद है. फिल्म को सिनेमा हाल में नहीं देख पाया था तो कल देखी.

फिल्म की कहानी असलियत के करीब है और ऐसा कहने का एक बड़ा कारण यह भी है कि मैंने खुद देखा है पंजाब का यह हाल. नशे में डूबे युवा, टॉमी सिंह जैसे सिंगर, गांवों/शहरों में होने वाले शो में भीड़ से बचके भागते हुए सिंगर, पंजाब पुलिस के भ्रष्ट अफसर और इन सबके बीच कोई-कोई ईमानदार दिलजीत दोसांझ. पंजाब के बॉर्डर से लगते जिलों में स्थिति ज्यादा बुरी है. ऐसा नहीं है कि ड्रग्स पंजाब की अकेली समस्या है. ‘जमीं बंजर और औलाद कंजर’ (फिल्म में एक बुजुर्ग का संवाद) पंजाब की समस्या को संक्षेप में कहने के लिए काफी है. आप ज्यादा पड़ताल करेंगे तो पलायन, शो ऑफ के जाल में जकड़ी युवा पीढ़ी, भ्रष्ट राजनीति, संस्थाओं पर काबिज राजनेता, बेरोजगारी, राजनीति का मोहरा बनी धार्मिक संस्थाएं, कर्ज में डूबे किसान और कम पैदावार के बीच देश का अगला विदर्भ होने का इंतजार करता पंजाब एक साथ कई समस्याओं से जूझ रहा है. लेकिन जैसा कि फिल्म में दिखाया गाया है पंजाब की लगभग हर समस्या की एक ही जड़ है. “ड्रग्स”

सवाल यह है कि क्या यह समस्या अचानक आई है? पुलिस प्रशासन की नाकामी के कारण पैदा हुई? पडोसी मुल्क से बोर्डर पार सप्लाई के कारण आई? या यह किसी सरकार की सोची समझी रणनीति के तहत हुआ? जवाब लेने के लिए कुछ दशक पीछे जाना पडेगा.

एक समय था जब पंजाब में अलगाववाद को तत्कालीन केंद्र सरकार (पढ़ें कांग्रेस) ने कुछ लोगों को सरकारी पानाह देकर बढ़ावा दिया. अलगाववादी तत्वों को बढ़ावा देने का कारण अपने राजनैतिक विरोधियों  को ठिकाने लगाने की रणनीति का हिस्सा था, बिलकुल उसी तरह जैसे अमेरिका ने अफगानिस्तान में रूस को टक्कर देने के लिए ओसामा को पैदा किया. राजनैतिक विरोधी तो ठिकाने लाग गए लेकिन अलगाववादी ताकतें खुद को पंजाब का कर्णधार मानते हुए तत्कालीन कंद्र सरकार से टक्कर ले बैठीं. ताकत का सहारा पकिस्तान से मिला तो हाथ थमने में अलगाववादियों ने समय नहीं लगाया. उसके बाद घटनाओं की एक लम्बी श्रृखला छिड़ गई जिसमे हर कोई गुनाहगार था. ऑपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा गाँधी की हत्या, सिख विरोधी दंगे, उसकी पंजाब में प्रातिक्रिया और आतंकवाद की चपेट में ऐसा पंजाब जहाँ शाम के छः बजे के बाद सड़क पर निकलना भी गुनाह था और हिन्दू होना भी.

लाखों परिवार अस्सी के दशक में पलायन कर गए. लेकिन सबके अन्दर पन्जाब जिन्दा रहा. उसके बाद नब्बे के दशक में एक तरफ पंजाब में बेअंत सिंह जैसे मजबूत मुख्यमंत्री आये तो दूसरी तरफ केंद्र में अपेक्षाकृत मौन रहने वाले नरसिंह राव.  जुलिओ रिबेरो और के पी एस गिल जैसे बेहतरीन पुलिस आधिकारियों के नेतृत्व में पुलिस को कार्रवाई करने की छूट मिली, कानून को ताक पर रखकर भी. यह वो दौर था जब आला पुलिस अधिकारी अपने मातहतों को खुलेआम आदेश दिया कारते थे “तुम्हारे एरिया में अगर गोली चले तो वो तुम्हारी होनी चाहिए, और हम कभी नहीं पूछेंगे कि गोली किसे लगी है.” ख़ुफ़िया सूचनाओं के प्रवाह के साथ पंजाब पुलिस पंजाब से लेकर कश्मीर तक फ़ैल गई. आतंकियों को हथियारों की सप्लाई बंद करने से लेकर आतंकवादियों और लोकल गुंडों के गैर कानूनी एनकाउंटर तक सब कुछ खुलेआम हुआ. पंजाब में बोलने की इजाजत केवल बन्दूक को थी. ढाई साल लम्बे इस दमन चक्र के बाद पंजाब के लगभग हर घर में एक जवान मौत का किस्सा था और शांति भी.

लेकिन सरकार को मालूम था ऐसे दमन चक्र के बाद होने वाली शान्ति अस्थायी होती है. ऐसे में ड्रग्स हथियार बना. एक गम में डूबी पीढ़ी को हमेशा के लिए खामोश बना देने वाला हथियार. ड्रग्स आसानी से मिले लगी और उनके दिमागों को सुन्न करने लगी जिनके हाथों में प्रतिक्रिया के हथियार उठ सकते थे. सरकार ने ही आँखें मूँद ली तो कौन रोकता इस कारोबार को? भुक्की, डोडे, अफीम, खांसी की हाई डोज वाली दवाइयां सब कुछ आसानी से मिलता रहा. पीढियां नशे में डूबी हों तो सवाल कौन करे? पंजाब के अन्दर गहरे पैवस्त हो चुकी ड्रग्स के परिणाम डराने वाले हैं लेकिन यकीन कीजिये अगर ड्रग्स का यह खुला कारोबार न होता तो शायद पारिणाम और भी भयानक होते.

उड़ता पंजाब में इस पूरे सच से पीठ नहीं मोड़ी गई और यही फिल्म की खासियत है. आज के पंजाब में सरकार के सर्वेसर्वा बने लोगों के जीजा और साले ड्रग्स के कारोबार से सम्बंधित मामलों में मुख्य आरोपी हैं तो विपक्ष के नेताओं के भी हाथ इस धंधे की दलाली में कमाए गए नोटों से गर्म हैं. सरकार किसी की भी हो, ड्रग्स आखिरी सत्य है. और शायद यही पंजाब की किस्मत है.

फिल्म का अंत इसलिए अच्छा है क्योंकि इसमे न तो किसी समस्या का रोमांटिक और वाहियात हल निकालने की कोशिश की गई ना ही दर्शकों को समस्या के हल से महरूम रखा गया. फिल्म के अंत में जहाँ करीना कपूर अपनी लड़ाई हार जाती है वहीँ अलिया भट्ट का संघर्ष पूरा हो जाता है तो दिलजीत और शहीद कपूर का संघर्ष अभी बाकी है. फिल्म असलियत का कडवा स्वाद चखाते हुए भी एक पोजिटिव नोट के साथ बंद होती है क्योंकि पंजाब के लिए पिक्चर अभी बाकी है.

इसके अलावा फिल्म देखते हुए दिमाग में ‘उडता पंजाब’ दो हिस्सों में बंटी थी. एक वह फिल्म जो गालियों से भरपूर है और असलियत के करीब है, दूसरी वह फिल्म जो बिना गालियों के है, असलियत से भाषाई तौर पर थोड़ी दूर हो जाती है लेकिन समाज के लिए बेहतरीन प्रेरणा देकर जाती है जिसे कोई भी माँ बाप अपने टीन-ऐजर बच्चे के साथ देख सकते हैं क्योंकि यही वह उम्र है जब ड्रग्स अपना शिकंजा कसते हैं. फिल्म को गालियों के साथ रिलीज करने से बहुत से लोग जो परिवार के साथ इसे देखना चाहते होंगे शायद नहीं देख पाए. लेकिन फिल्म को देखने के बाद पह्लाज निहलानी मुझे सही लगे क्योंकि फिल्म का मकसद अधिक से अधिक लोगों तक पहुँच कर ड्रग्स के खिलाफ माहौल बनाना होना चाहिए था न कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए कुछ गलियां फिल्म में मौजूद रहें इसे लेकर कोर्ट में केस लड़ना. शायद यहाँ अभिषेक चौबे और अनुराग कश्यप एक बेहतरीन फिल्म बनाकर भी अपनी लड़ाई हार गए हैं. अभिव्याक्ति की स्वतंत्रता जैसे छलावे में फिल्म न फंसती तो ज्यादा बेहतर होता. शायद!

About Satish Sharma 44 Articles
Practising CA. Independent columnist in News Papers. Worked as an editor in Awaz Aapki, an independent media. Taken part in Anna Andolan. Currently living in Roorkee, Uttarakhand.

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