किसी भी बदलाव से होने वाले प्रभाव ही बदलाव में भागीदार लोगों के उत्साह के जनक हैं. आखिर भविष्य की आहट ही तो वर्तमान में काम करने की प्रेरणा देती है. 8 नवम्बर की रात के 8 बजे देश एक बड़े बदलाव के लिए चल पड़ा. सवाल यह है कि यह बदलाव अच्छे के लिए है या बुरे के लिए? एक तरफ बैंकों के बाहर लम्बी लम्बी कतारें लगी हैं तो दूसरी तरफ इन कतारों को चाय-पानी पिलाने वाले भी हैं. एक ओर प्रधानमंत्री देश की जनता से भावुक अपील करते हैं तो दूसरी ओर विपक्ष जनता की असुविधा को लेकर सरकार पर हावी है. एक ओर राहुल गाँधी बैंक की लाइन में लगकर सुर्खियाँ बटोरते हैं तो दूसरी ओर प्रधानमंत्री की माँ चलकर बैंक में आती है. आम जनता पैसों की किल्लत से जूझ रही है. कामकाजी लोग दिन भर काम करने के बाद आधी रात तक एटीएम की लाइनों में लग रहे हैं. कहीं मंडी में पड़े अनाज को खरीदार न मिलने की बात है तो कहीं नए नोटों के अभाव में अस्पताल में मरीजों का इलाज न होने की हेडलाइन. पूरा देश भ्रमित है, आखिर ये हुआ क्या और आगे होगा क्या? बहुत सी शंकाएं भी हैं. क्या बाजार में नोटों का अभाव होने से मंदी नहीं आएगी? क्या इस से काला धन रखने वालों पर कोई लगाम लगेगी? क्या इस सारी कवायद से बचा नहीं जा सकता था?
पहले बात काले धन की करते हैं. काले धन का मामला जिस तरह से जनता के सामने हमारे राजनेता रखते हैं वह केवल एक रोमांटिक परिभाषा ही कहा जा सकता है. काले धन के कई आयाम हैं, बहुत से ठिकाने हैं और इसके बचते जाने और बढ़ते जाने के अनगिनत रास्ते हैं. काले धन का सृजन पिछले कुछ समय में हुआ ऐसा भी नहीं है. डा. भीम राव अम्बेडकर के भाषणों में भी इसका जिक्र आता है तो 1978 में हुई नोटबंदी के पीछे भी काले धन पर लगाम लगाना ही उद्देश्य था. नब्बे के दशक में सरकार द्वारा काले धन को टैक्स देकर सफ़ेद करने का प्रस्ताव हो या, इसी साल आई स्कीम, काला धन लगातार ज़िंदा रहा, बढ़ता गया. कभी यह बड़े बड़े गोदामों में दाल और अनाज के ढेरों के रूप में जमा रहा तो कभी जमीन, सोने और अन्य कीमती चीजों के रूप में. कभी इसका ठिकाना देश की बेनामीं संपत्तियां रहीं तो कभी यह स्विस बैंक्स में गया और आजकल अफ्रीकी जमीनों के रूप में मौजूद है. कभी इसकी सक्रियता देश के चुनाव को प्रभावित करने में रही तो कभी इसके कारण संस्थाओं और कंपनियों में नेताओं और व्यापारियों की साझेदारी जनता के लिए दर्द का सबब बनी. लेकिन एक बात हमेशा समान रही. काला धन बढ़ता रहा और इस पर लगाम लगाने के सारे प्रयास विफल रहे.
अभी भी टैक्स रिफोर्म, आसान कर प्रणाली, भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कानून, नैतिक मानदंड ऊंचे करने के उपदेशों के रूप में इसका इलाज ढूँढने वाले कम नहीं हैं और वे गलत भी नहीं हैं. लेकिन जैसा कि कहा जाता है जब पुलिस अपना रवैया बदलने की सोच रही होती है तब मुजरिम अपना रवैया बदल चुका होता है. ऐसे में काले धन को लेकर दीर्घकालीन बदलाव न केवल समस्या को और टालते रहने की कोशिश है बल्कि इस बात का पूरा प्रयास भी है कि कुछ बदल न पाए.
विदेशों में जमा काले धन का मामला भी कुछ ऐसा ही है. प्रोफ़ेसर अरुण कुमार की किताब “The Black Economy of India” में इस बात का बेहतरीन विश्लेषण दिया गया है कि काला धन कैसे बनता है और यह कहाँ इकठ्ठा होता है? इस किताब के अनुसार देश में बनने वाले काले धन का लगभग 34 प्रतिशत हिस्सा देश के अन्दर ही करंसी के रूप में मौजूद रहता है तो लगभग 48 प्रतिशत हिस्सा बेनामी संपत्तियों, महँगी पेंटिंग्स और सोने के रूप में मौजूद रहता है. इसके आलावा 10 प्रतिशत महंगे उत्पादों पर देश में ही खर्च हो जाता है तो बाकी बचा 8 प्रतिशत विदेश में जाता है. इस आठ प्रतिशत में से भी लगभग आधा सुख सुविधाओं पर खर्च हो जाता है बाकि बचा आधा संपत्तियों और बैंक खातों में जमा होता है. यानी विदेशों में जमा काला धान केवल 4 प्रतिशत है और पिछले चुनावों में मुद्दा बनने के बाद यह 4 प्रतिशत भी अपना ठिकाना बदल चुका है. इस प्रकार देश में काला धान पर होनेवाली बहस केवल विदेशी बैंकों और संपत्तियों में मौजूद 4 प्रतिशत तक सिमट गई है. बाकी 96 प्रतिशत का क्या? खास तौर पर तब जबकि कुल काले धन का 92 प्रतिशत देश में मौजूद है.
तो नोट बंदी से आखिर किस काले धन पर लगाम लगेगी? और कैसे? पहले सवाल का जवाब आसान है. देश के अन्दर मौजूद काले धन का हिस्सा यानी कुल काले धन का लगभग 34 प्रतिशत निशाने पर है. कैसे? इसके लिए कुछ और चीजों को समझना होगा. आखिर किसी भी देश की मुद्रा कैसे काम करती है और उसका क्या प्रभाव होता है?
मान लीजिये जिस कमरे में आप बैठे हैं वह एक देश है और उस कमरे में मौजूद 3 लोग ही देश के नागरिक हैं. देश में मौजूद मुद्रा यक़ीनन इन तीनों में से ही किसी एक के पास होगी या किसी एक के पास ही पूरी मुद्रा का भण्डार हो सकता है. अगर यह मुद्रा 100 रूपया है तो कमरे (पढ़ें देश) में मौजूद चीजों की कीमत अधिकतम 100 रूपया ही हो सकती है. यदि सरकार और मुद्रा छाप दे और देश की कुल मुद्रा 500 हो जाए तो देश की कुल वस्तुओं की कीमत अधिकतम 500 हो सकती है. यानी ज्यादा मुद्रा की छपाई मतलब ज्यादा महंगाई. कम मुद्रा मतलब कम महंगाई. (मुद्रा को हद से ज्यादा कम हो जाना अपने दुष्प्रभाव भी लेकर आता है, उस पर बात फिर कभी.)
नोटबंदी के ताजा फैसले के बाद देश में मौजूद सारी असली मुद्रा को बैंक में जाना होगा, जहाँ से इन नोटों की अदला बदली होगी. लेकिन क्या सचमुच सारी मुद्रा बैंकों में जायेगी? सरकार पहले ही कह चुकी है कि अगर किसी खाते में घोषित आय के मुकाबले अधिक पैसा जमा होता है तो उस पर टैक्स और 200 प्रतिशत पेनाल्टी लगाई जायगी और अघोषित आय रखने के मामले में जेल जाने का प्रावधान भी है. ऐसे में जिनके पास करेंसी के रूप में काला धन मौजूद है क्या वे उसे बैंक में जमा कराने का रिस्क लेंगे? इसमें पैसे के जाने के साथ साथ जेल जाने का खतरा भी है. 15 नवम्बर के बिजनेस स्टैण्डर्ड के अनुसार देश में मौजूद लगभग 15 लाख करोड़ रुपये के 500/1000 के नोटों में से लगभग साढ़े चार लाख करोड़ के नोट बैंक में जमा ही नहीं होंगे. इन नोटों के मालिक या तो इन्हें जला देंगे या किसी अन्य तरीके से नष्ट कर देंगे. इसका मतलब यह है कि सरकार के पास हुए नोटो की छपाई में से साढ़े चार लाख के नोट कोई लेने ही नहीं आयगा तो वे सीधे सरकार के खाते में बचे रहेंगे.
कल्याणकारी सरकार के लिए धन सबसे पहली जरुरत है. सेना के लिए खरीद हो, मूल भूत सुविधाओं में निवेश हो, शिक्षा-स्वास्थ्य के रूप में जनकल्याणकारी काम हों या पुलिस और न्यायिक सुधार, पैसा सबके लिए चाहिए. और नोटबंदी का यह चक्र सरकार को अमीर करेगा और सरकारी खर्च करने की सरकारी क्षमता को बढ़ाएगा भी. कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर आने वाले बजटों में सरकार नागरिकों के लिए बेहतर सुविधाओं के लिए बड़े प्रावधान करे.
इसके अलावा बाजार में काला धन कम निवेश होगा तो बहुत से ऐसे क्षेत्र जहाँ आम आदमी अपनी साधारण जरूरतें भी पूरी नहीं कर पा रहा था उनमें मंदी आये और वे आम आदमी की पहुँच में आयें. जैसे मकान. रियल स्टेट में बेवजह का उछाल आम आदमी के अपने मकान के सपने को लगातार उस से दूर रख रहा है. बड़े शहरों में मर्सिडीज और ऑडी गाड़ियाँ लेनी आसान है मकान नहीं. यह स्थिति भी बदलेगी. मकान सस्ते होंगे. सोने और अन्य जेवरों कि कीमतों में कमी देखने को मिलेगी और ये सब आम आदमी की पहुँच में होंगे.
इसके अलावा देश में मौजूद आतंकी और माओवादी गतिविधियों में खर्च हो रहे धन में अधिकतर नकली नोट थे. जिनका मामला अगले कुछ महीनों या सालों के लिए ठंडा पड़ जायगा. आर्थिक रूप से कमजोर होने पर इन संगठनों पर सरकारी प्रहार ज्यादा मुफीद होगा. यक़ीनन यह देश में कानून व्यवस्था की स्थिति सुधारेगा.
तो आपका लाइन में लगा होना कुछ दिनों के लिए मुसीबत हो सकता है, हमेशा ऐसा नहीं रहेगा. देश ने आपसे 50 दिन मांगे हैं तो इतना इन्तजार तो हम कर ही सकते हैं. यक़ीनन कष्ट है, लेकिन स्थितियां हमेशा ऐसी नहीं रहेंगी. घर में बदलाव का समय है तो पूरे परिवार को एक साथ खड़े रहना चाहिए. बैंकों की लाइनें हो या अस्पतालों में इलाज की समस्या, एक दुसरे की सहायता करें.
अब दूसरा मामला यानी एक बार बैंकों से नोट बदलने का काम पूरा होने के बाद क्या होने वाला है? क्या इस से बाजार में मंदी आएगी? क्या व्यापार कमजोर होगा? क्या मांग में कमी होने पर फैक्ट्रियां बंद होंगी? क्या यह आने वाली बेरोजगारी की आहट है? क्या सरकार का यह कदम सरकार के लिए आत्मघाती होने के साथ पूरे देश को ले डूबेगा? इसके लिए अगले ब्लॉग में चर्चा करेंगे… अभी तो सहयोग करें क्योंकि देश आपका है तो जिम्मेदारी भी आप ही की बनती है. अर्थव्यवस्था में मौजूद एक तिहाई काला धन साफ़ होने में कुछ कष्ट तो होंगे. शुभकामनायें.
आपका यह सन्देश महतवपूर्ण है।