उसे समझ नहीं आ रहा था क्या किया जाये. ऐसा नहीं था कि यह पहली मुश्किल थी जिसका सामना उसे करना पड़ा था. लेकिन इस बार ऐसा लग रहा था कि समाधान कोई गहरी गुफा है जिसके दूसरे छोर तक पहुँचने में उसकी सांस रुक जाएगी. बार बार एक ही सवाल उसके सामने आ रहा था. क्या यह सब हुआ है? कल शाम ही तो सब ठीक था और अब? आखिर ऐसा कैसे हो सकता है?
यह दिल्ली का सबसे बड़ा अस्पताल था. उस व्यक्ति के नाम पर जिसने किसी समय देश की सत्ता की जड़ें हिला दी थी. राम मनोहर लोहिया अस्पताल. अस्पताल का मेन ब्लाक उतना ही बड़ा लग रहा था जितनी बड़ी उसकी समस्या थी. वह अकेली थी. कृतिक अन्दर बेड पर लेटा हुआ था. मृतप्राय. निश्चेष्ट. स्पन्दन्हीन. एक लाश जैसा. बस धड़कन अभी चल रही थी. शरीर के ऊपर मस्तिष्क का कोई नियंत्रण नहीं था. कल रात उससे पैरालिसिस का अटैक आया था. ३४ साल की उम्र में. ऐसा कैसे संभव है? सब कुछ तो ठीक चल रहा था. फिर अचानक यह सब? और उसी के साथ क्यों?
डॉक्टर ने उसे कुछ समय बाहर जाने के लिए बोला था. कृतिक के कुछ टेस्ट होने हैं और उसका अन्दर रहना संभव नहीं था. वह मेन ब्लाक के सामने वाले गार्डन में आ गई. खाली बेंच पर बैठ गई. अनजान था ये शहर उसके लिए. दो महीनों में आखिर कितना जान ले कोई इतने बड़े शहर को? कृतिक के ऑफिस में कौन कौन है अभी तो वह ठीक से नाम भी नहीं जान पाई थी. परिवार ३००० किमी दूर था. केरल के कोवलम में. कृतिक के माता पिता, भाई. उसके अपने. यहाँ कोई भी तो नहीं था. वह अकेली थी. इस अकेलेपन ने समस्या की भयावहता को और बढ़ा दिया था. उसकी आँखों से आंसू ढलक गए. बेंच पर बैठे बैठे घुटने मोड़कर उसने अपना मुंह अन्दर छुपा लिया. कोई देख न ले…. लेकिन सिसकियाँ देखने की मोहताज तो नहीं थी. वे आती रहीं. आंसू ढलकते रहे.
अचानक उसने अपने कंधे पर किसी की छुअन महसूस की. सर ऊपर उठाया तो एक अनजान चेहरा था. उसके आंसुओं से तर चेहरे के सामने एक मुस्कुराता चेहरा. उम्र लगभग ६० होगी. कोई और समय होता तो वह इसे किसी लम्पट का प्रयास समझती लेकिन अपनी कमजोरी और सामने वाले के चेहरे पर सौम्यता ने उसे कुछ कहने नहीं दिया.
आने वाले ने इशारे से पूछा ‘क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ?’
एक व्यक्ति के बैठने के लिए जगह जरा कम थी इसलिए वह थोडा सा एक ओर सरक गई. वह बैठ गया. कुछ मिनट ख़ामोशी अपनी बातें सुनाती रही. विचार आते जाते रहे. खामोशी की यह चादर अभी गहरी हो ही रही थी कि अनजान व्यक्ति ने अपने लफ्जों से इसमें कैंची लगा दी.
“कौन भरती है अस्पताल में आपका?”
वह आंसुओं की नमी से उबार चुकी थी इसलिए शुष्क आवाज में जवाब दिया. “मेरे पति हैं.”
“क्या हुआ है?”
“कल रात पैरालिसिस का अटैक आया.”
“क्या पहले से कोई लक्षण महसूस हुए थे?”
“नहीं. कभी ऐसा कुछ महसूस नहीं हुआ. और उम्र भी तो केवल ३४ साल है. बस सब अचानक ही…….” आंसुओं ने फिर उसे अपने दायरे में लेना चाहा. और ले लिया…..
उसकी सिसकियों के बीच अनजान आगंतुक ने कहना शुरू किया. “मेरी पत्नी है कामती, पिछले ११ महीने से. उस रोज कामती को डॉक्टर से मिलना था. मेरा रिटायर्मेंट करीब था इसलिए ऑफिस जाना जरुरी था. बेटे ने मां को ले जाने के लिए हामी भरी. मैं गाड़ी घर पर छोड़ गया. और शाम चार बजे मेरे मोबाईल पर किसी ने बताया कि गाडी का एक्सीडेंट हो गया है. कोई अनजान व्यक्ति था. बेटे के मोबाईल में पापा के नाम से मेरा ही नंबर था जिसे देखकर उसने कॉल किया. भलामानस मुझसे पहले एम्बुलेंस को बुला चुका था. मुझे सीधे इसी अस्पताल पहुँचने को कहा.”
“जब यहाँ पहुंचा तो बेटे को स्ट्रेचर पर लेटे देखा और कामती बेहोश थी. दोनों खून से लथपथ थे. बेटे की निश्छल देह और उसके ऊपर किसी वार्ड ब्वाय द्वारा डाले गए कपडे ने सब कहानी कह दी थी. बेटा चला गया था लेकिन पत्नी को बचाया जा सकता था. बस अभी तक उसी कोशिश में हूँ. पिछले ग्यारह महीने से अस्पताल के इसी गार्डन में बैठता हूँ या पत्नी के साथ अन्दर जहाँ वह कोमा में है.”
तो वह अकेली नहीं थी. अपने दर्द से ध्यान बंटा तो मानवीय संवेदना ने उसे घेर लिया. “ओह आपके साथ बहुत बुरा हुआ…..” वह इतना ही कह पाई.
“नहीं, नहीं. ऐसा कुछ नहीं. ये तो जिंदगी है. इसमें बहुत कुछ होता है. वैसे भी अब मुझे यह बुरा नहीं लगता. मैं अब एक अलग स्टेज पर हूँ.”
“मतलब?……”
“मतलब जब कोई भी समस्या आती है तो व्यक्ति अलग अलग तरीके से सोचता है. आप समस्या की शुरुआत में हो इसलिए आपकी सोच पहली स्टेज के अनुसार है. मुझे इस हालत में काफी समय बीत चुका है अब मैं इसमें सहज महसूस करता हूँ.”
व्हाट रबिश? इस मुसीबत की भी कोई स्टेज होती है? उसने पूछना चाहा लेकिन पूछ नहीं पाई. शायद उसकी आँखों में फैली हैरानी और उलझन ने उसका सवाल अनजान व्यक्ति के सामने रख दिया.
“हम जब भी ऐसी किसी समस्या में होते हैं उसकी पांच स्टेजेस होती हैं.”
“सबसे पहले नकारने का स्टेज आता है. हमें यकीं ही नहीं आता कि यह हमारे साथ हो गया है. आखिर ऐसा कैसे हो सकता है? अगर वह पांच मिनट दोबारा मिल जाएँ तो शायद मैं उन्हें अलग तरीके से जियूं. शायद मैं समय से ब्रेक मार लूँ. शायद यह एक्सीडेंट न हो. काश मुझे समय रहते पता लग जाता तो मैं उसे घर बाहर न जाने दूँ. मुझे पहले से एहसास हो तो मैं यह झगडा न होने दूँ… इस तरह के विचार आते रहते हैं लेकिन जो समस्या है उसे दिमाग स्वीकार नहीं कर पाता. अभी संभवतः तुम इसी स्टेज पर होगी.”
सही तो कह रहे थे वे. काश वह उसी वक्त हॉस्पिटल को फ़ोन कर देती जब अटैक से पहले कृतिक ने दायें हाथ में झनझनाहट की शिकायत की थी. एक घंटा पहले वे हॉस्पिटल आ जाते तो शायद अटैक हॉस्पिटल में ही होता और डॉक्टर समय रहते सब संभाल लेते. अटैक के बाद एम्बुएंस बुलाने में, कृतिक को सँभालने में और यहाँ लाने में कम से कम १ घंटा और लग गया था.
“दूसरी स्टेज होती है जब हम समस्या को तो स्वीकार कर लेते हैं लेकिन ईश्वर से मोर्चा खोल देते हैं. आखिर मेरे साथ ही क्यों? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था? तुम्हे मेरे साथ ही ऐसा करना था? मैंने ऐसा क्या गुनाह किया कि यह मेरे साथ हुआ? इस स्टेज में हम भगवान् से लगातार सवाल करते हैं और उसे कोसने का दौर चलता है. यह दौरा जरा लम्बा चलता है. और सबसे अधिक पीड़ादायक भी होता है. व्यक्ति लगातार संताप में रहता है और अदृश्य ताकत को कोसने में लगातार नकारात्मकता अपने अन्दर भरता रहता है. कुछ लोग इस स्टेज में खुद को या किसी नाते रिश्तेदार को भी कोसते राहते हैं लेकिन इस पूरी प्रक्रिया का कोई फायदा नहीं होता. बस मन का गुबार निकल सकता है. वह भी अपने अन्दर नकारात्मकता के निशाँ छोड़कर.”
ओह… तो उसे इस नरक से अभी गुजरना है… नहीं वह ऐसा नहीं करेगी….
“तीसरी स्टेज में सौदेबाजी का दौर चलता है. हम लोग अपनी मान्यताओं के अनुसार अलग अलग ताकतों के सामने सर झुकाते हैं और उनसे अपनी जिन्दगी की बेहतरी के लिए सौदेबाजी करते हैं. मैं तेरे दर पर प्रसाद चढाऊंगा. उस दरगाह पर चादर चढाऊंगा. इस चर्च में दान दूंगा. गुरूद्वारे में देग करूँगा. बस ऐसे ही चलता है. भगवान् को दुकानदार मानकर लगातार मोलभाव चलता रहता है. कभी कुछ अच्छा संकेत मिलता है तो लगता है मन्नत पूरी होने वाली है. जरा बुरा संकेत दिखता है तो लगता है इन मन्नतों से कुछ नहीं होने वाला. लेकिन सौदेबाजी लगातार चलती रहती है.”
“चौथी स्टेज में जब हम भगवान् को कोसकर थक चुके होते हैं और मन्नतों से निराश हो जाते हैं तो समस्या को स्वीकार करने के आलावा और कोई चारा नहीं रहता. यह स्टेज सबसे खतरनाक होती है क्योंकि अधिकतर लोग इस स्टेज से आगे नहीं बढ़ पाते. उन्हें लगता है अब कोई रास्ता नहीं. बस यही समस्या लगातार बनी रहेगी. समस्या को स्वीकार कर लेना मतलब उसके सामने हार मान लेना. यह लगभग आत्म-समर्पण जैसी स्थिति होती है.”
“पांचवी और अंतिम स्टेज समस्या को स्वीकार करने के बाद उससके समाधान की होती है. कभी कभी यह समाधान यथास्थिति से समझौता होता है तो कभी यथास्थिति को तोड़ने के लिए विद्रोह समाधान का रूप लेकर आता है. इस स्टेज को किसी परिभाषा में नहीं बांधा नहीं जा सकता क्योंकि सबके लिए समाधान अलग होते हैं. सबको अपने समाधान ढूँढने होते हैं. जरुरत साक्षी भाव से समस्या, उपलब्ध संसाधन और उनके बेहतरीन इस्तेमाल के लिए योजना बनाने और उस पर अमल करने की होती है. जितनी बड़ी समस्या है समाधान में उतनी ही ज्यादा मेहनत और समय लगता है.”
उसके चहरे पर दर्द के भाव कम होने लगे थे तो उलझन ने उसकी जगह ले ली थी. वह अस्फुट स्वर में बोली “तो क्या मुझे भी इन्हीं पांच स्टेज से गुजरना होगा?”
“नहीं. मुझे इन पांच स्टेज के बारे में पता तब लगा जब मैं इन सब से गुजर रहा था. मेरे पास पहले से इन्हें जानने का कोई साधन नहीं था. तुम्हारे पास मैं हूँ. मेरा अनुभव तुम्हारे सामने है तो तुम चुनाव कर सकती हो कि तुम्हे किस स्टेज पर ज्यादा समय रहना है या किस स्टेज को बाई पास कर देना है लेकिन समाधान तक आये बगैर कोई राहत नहीं मिलेगी. सबसे बड़ा खतरा चौथी स्टेज पर फंसने का है उस से बच जाना. मुझे लगता है तुम बच जाओगी. अब मैं चलता हूँ. कामती को नहलाने का वक्त हो गया.”
वह अभी भी वहीँ बैठी उन्हें जाते हुए देख रही थी. कुछ्ह कहना चाहती थी लेकिन खामोश हो गई. उसे भी तो अब अन्दर जाना चाहिए…. कृतिक के टेस्ट पूरे हो गए होंगे. और फिर परिवार वाले भी आते ही होंगे. उनकी फ्लाईट का समय भी तो हो गया.
वह उठी तो लगा एक जाने पहचाने रास्ते पर चल रही है…. किसी के यात्रा वृत्तान्त से जाना पहचाना सा रास्ता…. उसके कदम जरा तेजी से उठने लगे. यह जरुरी भी था क्योंकि उसे पहली स्टेज से सीधे पांचवी में छलांग भी तो लगानी थी.
Really true but kuch log first ke baad seedhe fifth stage pe bhi pahuch jaate hai kyuki aajkal maximum sabhi ki life me aisa kuch na kuch incident hata hi rahta hai.no buddy is absolutely fine nowadays
बहुत ही अच्छी कहानी थी पर लगा जैसे ये सब तो सबके साथ होता ही है तो इसे कहानी कहना भी गलत ही होगा / मेरा मानना तो ये है की हम चाहे कितना प्रयास कर ले पर हम इन पांचो stages से बच नहीं सकते क्यूंकि शायद ये हमारे अन्दर की शक्ति ही होती है जो हमे कुछ देर तक हर स्टेज पे लड़ने का सामर्थ देती है./ ये मेरी व्यक्तिगत सोच है की हम हर स्टेज पर जो कुछ समय बिताते हैं वो ही हमें अगले पड़ाव के लिए मजबूत बनता है / ……
अच्छी शुरुआत. बधाई