पुरानी राहों पर चलते हुए जो नए रास्तों का निर्माण कर सके, परम्पराओं को ध्वस्त करते हुए जो उन्हें नए कलेवर में ढाल सके, जाने पहचाने माहौल में जो नया और अद्भुत रच सके दरअसल वही व्यक्ति नए युग में पुरानी सदियों के गौरव ध्वज का असली वाहक होता है. एस.एस.राजमौली ऐसे ही निर्देशक हैं. शुक्रवार तक जिस फिल्म के बारे में अधिकाँश लोग (मैं भी उन्हीं में शामिल हूँ) जानते तक नहीं थे, रविवार को एक लम्बी लाइन में फिल्म देखने के लिए खड़े थे.
मैं स्वयं फिल्म का बजट देखकर केवल उसकी भव्यता को परखने गया था. केरल के प्राकृतिक दृश्यों से शुरू होती हुई फिल्म जब एक राजघराने की लड़ाई तक पहुंची तो भव्यता परखने का ध्यान ही नहीं रहा क्योंकि मस्तिष्क तो कहानी में खो गया था. एक आम नजर से देखेंगे तो प्राकृतिक दृश्य, रोमांस, कहानी, बलिष्ठ नायक सभी कुछ साधारण है फिल्म में. लेकिन जैसा कि भारतीय फिल्मों के बारे में कहा जाता है कि यहाँ “कहानी तो पुरानी ही होती है, दर्शक तो केवल फिल्मांकन देखने जाता है.” पुरानी खिड़की से आती नई हवा की तरह बाहुबली की कहानी भी लगातार आपको चौंकाती रहती है और उनका प्रदर्शन का तरीका भी. प्रतीकों का इस से बेहतर इस्तेमाल शायद ही कभी मैंने देखा हो.
नायक का नायिका को मिलना, नायिका ऐसी जो अपने देश की आजादी की लड़ाई की योद्धा है, ऐसे में प्रेम से भरा नायक कैसे उसे मनाता है? नायक नायिका की भिडंत में नायक द्वारा नायिका के श्रृगार करने का दृश्य वाकई अद्भुत है. एक तरफ नायिका के हाथ में हथियार है और वह नायक को दुश्मन समझते हुए उस पर वार करती है तो दूसरी तरफ नायक हर बार वार को बचाते हुए नायिका के शरीर और वेशभूषा में एक बदलाव कर जाता है, मेकअप का यह तरीका नया है. दृश्य की शुरुआत में एक जंगली योद्धा के रूप में अवतरित नायिका जल्दी ही प्राकृतिक साज सज्जा से भरपूर नवयौवना दिखने लगती है.
एक दूसरा दृश्य है जहाँ नायक की पहचान बाहुबली के रूप में उसके खानदानी गुलाम और वफादार ‘कटप्पा’ द्वारा की जाती है. स्वामिभक्ति दिखाने का इस से बेहतरीन तरीका शायद ही संभव हो. एक बूढा व्यक्ति ‘कटप्पा’ जिसके युद्ध कौशल का लोहा सब मानते हैं हाथ में हथियार उठाकर नायक की तरफ दौड़ता है और नायक तक पहुँचने से पहले सब हो जाता है, हाथ से हथियार का गिरना, मारने के लिए उठे हाथों का जुड़ जाना, क्रोध से जलती आँखों से आंसू बह जाना और नायक का पैर अपने सर पर रखकर उसकी दासता को स्वीकार करना. कटप्पा द्वारा नायक का पैर अपने सर रखते ही जैसे सब रुक जाता हैं सबको एहसास होता है बाहुबली आ गया, और सब झुक जाते हैं. बताने में शायद वह बात न पाए इसलिए फिल्म जरुर देखिएगा. लेकिन अक्षर ज्ञान से मरहूम लोगों का इस तरह प्रतीकों के माध्यम से सम्वाद कर लेना ‘शिक्षित’ और ‘अक्षर ज्ञानी’ होने में अंतर बताते हुए बहुत से ‘अक्षर ज्ञानियों’ के दंभ को तोड़ता जरुर है.
पुराने भारतीय समाज में महिलाओं के दबे कुचले होने की भ्रान्ति पर प्रहार करती एक वीरांगना यहाँ भी है, ‘महेंद्र बाहुबली’ की मृत्यु के बाद राजमाता जिस तरह राजद्रोह को दबाकर कुशलता से राज चलाती है वह देखने लायक है. सिंहासन के सामने खड़ी होकर उनका राजद्रोहियों को मौत के घाट उतारने का उनका आदेश कटप्पा द्वारा पूरा होते देखना उन्हें साक्षात् दुर्गा के अवतार में स्थापित करता है तो एक सेकेण्ड बाद ही जब इस सारे समय में उनके हाथ पकड़ा नवजात शिशु रोने लगता है तो उनके चेहरे के भाव अचानक कोमल हो जाते हैं और वे केवल ‘माँ’ बन जाती हैं. यह महिलाओं के दबा कुचला होने की अवधारणा को ध्वस्त करने का काम भी करता है और दबा कुचला होने के खिलाफ दोयम दर्जे का पुरुष बनते जाने की अंधी दौड़ की पोल भी खोलता है.
इसके बाद सिंहासन के दो दावेदारों को जिस तरह तैयार किया जाता है और जिस प्रकार उनके बीच विभिन्न प्रतियोगिताएं होती हैं और अंत में युद्ध के मैदान में दुश्मन राजा को मारने का लक्ष्य दिया जाता है उसे देखकर एक बार फिर एहसास होता है कि राजशाही में राजा बनना भी एक सैनिक बनने जैसा ही है, फर्क है तो केवल वेश भूषा का. जान हथेली पर तो दोनों की रहती है.
राजमौली ने एक बेहतरीन फिल्म बनाई है, जो कहीं कहीं महभारत की याद दिलाती है. एक तरफ द्रोणाचार्य, ध्रितराष्ट्र और दुर्योधन से मिलता जुलता विरोधी खेमा है तो दूसरी तरफ कर्ण, कृष्ण, अर्जुन आदि सभी का कुछ कुछ अंश समेटे नायक है. यहाँ सिंहासन के लिए होने वाला युद्ध भी हैं और वफादारों का गद्दारों में बदल जाने का झटका भी. करन जौहर इस फिल्म के सह-निर्माता हैं मगर उनका काम शायद निवेशक जितना ही है और यह फिल्म की सेहत के लिए अच्छा ही है. मुंबई फिल्म इंडस्ट्री को अभी लम्बा सफ़र तय करना है लेकिन टोलीवुड इस सफ़र की शुरुआत भी कर चुका है और जीत के निशान पर अपनी दावेदारी भी जता चुका है. उम्मीद है क्षेत्रीय सिनेमा के अंतर्गत बनी यह फिल्म तथाकथित नेशनल सिनेमा को आइना दिखने में सक्षम होगी.
राजमौली पूरी फिल्म के दौरान असली नायक बनकर उभरते हैं जो भव्यता को संजय लीला भंसाली टाइप की पर्दा जलाने वाली फिल्मों से बाहर निकालते हुए अपनी फिल्मों में इस खूबसूरती से पिरो जाते हैं कि किसी भी हॉलीवुड फिल्म को टक्कर देने लगते हैं. राजमौली ‘बाहुबली’ को बनाना भी जानते हैं और इसे बेचना भी. शायद इसीलिए वे अंतिम दृश्य में दर्शकों को बहुत गहरे सस्पेंस में छोड़कर अपनी अगली फिल्म की ऑडियंस तैयार कर लेते हैं जो बाहुबली के दूसरे भाग के रूप में 2016 में रिलीज होगी. यह सचमुच बाहुबली है, देखियेगा जरुर….. आखिर १००० करोड़ में कुछ आपका भी तो योगदान होना चाहिए….. 🙂
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