नारीमुक्ति : अधिकार केवल नक़ल का?

पिछले हफ्ते महिला-पुरुष समानता पर कुछ वैज्ञानिक आंकड़ों के साथ एक ब्लॉग लिखा तो लगा जैसे बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया. कुछ दोस्तों ने दोस्ती निभाते हुए इसे अच्छा बताया तो कुछ साथी महिला अधिकारों का हनन बताते हुए व्हाट्सएप और इमेल पर टूट पड़े. इनमें से कुछ प्रतिक्रियाएं बहुत उग्र थीं तो कुछ संतुलित, लेकिन अधिकतर प्रतिक्रियाओं में एक बात समान थी कि मेरे ब्लॉग में जो तुलना की गई है वह महिला और पुरुषों के शारीरिक/हार्मोनल/मेडिकल संरचना पर आधारित है जबकि महिलाओं को अधिकार देने की बात सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखी जानी आवश्यक है. मैं उन सभी से पूरी तरह सहमत हूँ कि मेरा पूरा ब्लॉग केवल शारीरिक संरचना को तुलना का आधार बनाते हुए लिखा गया था लेकिन जैसा कि मैं पहले एक ब्लॉग में लिख चुका हूँ कि किसी भी इंसान की शारीरिक संरचना का प्रभाव उसके क्रियाकलापों और आचार व्यवहार पर पड़ता है तो महिलाओं के लिए यह लागू नहीं होगा यह मानना असंभव है. पिछला ब्लॉग केवल एक कड़ी की शुरुआत भर था जिसमे महिला और पुरुषों के अलग अलग होने की बात को मेडिकल तथ्यों के आधार पर साबित करने की कोशिश की गई थी. अब इसकी अगली कड़ी में महिला अधिकारों के पैमाने पर हमारे सामजिक परिवेश को कसने की कोशिश करते हैं.

 महिला अधिकारों की बात करने से पहले शायद यह तय करना ज्यादा जरूरी है कि महिला आधिकारों की परिभाषा क्या है? यह मैं केवल इसलिए कह रहा हूँ कि महिला अधिकारों के नाम पर एक छलावे जैसा खेल हमारे समाज में लगातार चल रहा है. यह खेल पिछले पच्चीस साल में और ज्यादा तेज हुआ है जबसे भूमंडलीकरण के साथ पश्चिम की अर्थनीति ने भारत में प्रवेश किया. यह अर्थनीति कुछ कमियों के साथ भारत के लाइसेंसी राज से कहीं ज्यादा बेहतर और तर्कसंगत है, लेकिन इस पर चर्चा कभी बाद में. इस बात से शायद ज्यादातर लोग सहमत होंगे कि किसी भी समाज की सोच को चलाने और बदलने में अर्थनीति का योगदान उस से कहीं ज्यादा होता है जितना हम समझते हैं.
पश्चिम की अर्थनीति के साथ भारत के सामजिक/पारिवारिक ताने बाने में कुछ बड़े बदलाव हुए. जिनमें से एक बड़ा बदलाव यह था कि महिलाओं को उनकी मौलिक योग्यताओं से इतर अन्य मामलों में भी अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिला जिसका पूरा पूरा फायदा भारतीय महिलाओं ने उठाया हो ऐसा कहना मुश्किल है. इस असफलता के पीछे बड़ा कारण यह है कि महिलाओं को इन मौकों के साथ साथ एक छलावे में भी घेरा गया और वह छलावा था पुरुषों से बराबरी का. समय बदला और साथ साथ भारत के व्यवसाय करने का तरीका भी. पहले जिन जगहों पर केवल पुरुष काम करते थे अब उन्हीं जगहों पर महिलायें भी काम करती हैं, और यह सब महिला पुरुष बराबरी के नाम पर हो रहा है. बिना यह समझे कि क्या महिलाओं की कोई अलग योग्यता है या नहीं? क्या केवल पुरुषों के संग खड़े होकर हर काम करना भर ही उनकी योग्यता का सुबूत है. पुरुषों के काम करके खुद को बेहतर साबित करना क्या परोक्ष रूप से यह क़ुबूल कर लेना नहीं है कि पुरुष जो काम करते हैं वह बेहतर है और बेहतरी का मापदंड केवल उसी काम को दोहराना है. महिला पुरुष बराबरी के लिए महिलाओं का घर से कदम बाहर निकालना एक शुभ संकेत है लेकिन यह केवल पुरुषों की नक़ल करने के लिए हो, तो यह उनके लिए दुर्भाग्य भी बन जाता है.

इसे थोड़ा ऐसे समझिये कि क्या होगा अगर आप तेज दौड़ने वाले घोड़े से उम्मीद करें कि वह किसी बैल की तरह अधिक बोझ खींच कर दिखाए. या शेर की दहाड़ की तुलना किसी चिड़िया के चहचहाने से की जाए. इन सभी की अपनी अलग योग्यताएं, खूबसूरतियाँ और खूबियाँ हैं और तुलना करना किसी के साथ भी अन्याय होगा. तो फिर यह अन्याय लगातार महिलाओं के साथ क्यों किया जाता रहा है और वह भी नारी मुक्ति के नाम पर. महिलाओं के अपने कुछ गुण हैं जिनमे वे पुरुषों से बेहतर काम कर सकती हैं. उदाहरण के तौर पर इनमे से एक गुण उनका पुरुषों के मुकाबले अधिक रचनात्मक होना है. घर की दहलीज के अन्दर इस गुण का इस्तेमाल घर की साज सज्जा और अन्य कामों में किया जाता था तो घर के बाहर इस से मिलता जुलता काम इंटीरियर डिजाइनिंग या फैशन डिजाइनिंग हो सकता है. लेकिन अगर इस गुण को नजर अंदाज करके महिलाओं की सेना में भागीदारी को आधार बनाया जाए तो आखिर कितनी महिलायें इस के साथ न्याय कर पाएंगी? और यह हो रहा है. नतीजा देखिये. भारत की थल सेना में महिलायें हैं लेकिन बॉर्डर और अन्य संवेदनशील जगहों पर उन्हें नियुक्ति नहीं दी जाती, पुरुषों के मुकाबले में उनका कार्यकाल कम होता है. अगर बॉर्डर पर नियुक्ति नहीं होनी है तो महिलायें सेना में कर क्या रहीं है? क्या यह महिला अधिकारों के नाम पर यह सेना में सफ़ेद हाथी पालने जैसा नहीं है? तो क्या सेना में महिलाओं की कोई जगह नहीं है? है. आर्मी की एक शाखा है AMC (आर्मी मेडिकल कोर). यह शाखा सेना के जवानों/अधिकारियों को स्वास्थ्य सेवा प्रदान करती है. इस शाखा में भरपूर महिलायें हैं और उनकी क्षमताओं का दोहन भी इस शाखा में सही तरीके से हो पा रहा है. लेकिन इसके अलावा सेना की बाकी शाखाओं में महिलायें केवल सजावट का सामान बनकर रह गई हैं और वह भी नारी मुक्ति के नाम पर. और विडम्बना देखिये इस बार गणतंत्र दिवस की परेड में जब इन महिलाओं को पहली बार परेड में शामिल होने के लिए बुलाया गया तो सेना के पास इन्हें रुकवाने के लिए कोई ठिकाना भी नहीं था. मजबूरन 250 महिला अधिकारी दिल्ली के विभिन्न होटलों में रुकीं. क्या यह वाकई महिला स्वतंत्रता है? क्या हम इस से बेहतर कोई और तरीका नहीं निकाल सकते इनकी क्षमताओं का इस्तेमाल करने के लिए? एक बात और, एक तरफ जहाँ सेना में महिलाओं के होने से कुछ फायदा नहीं मिल पाता वहीँ पुलिस में महिलाओं की कमी है. और यह महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करने में बाधा बन रहा है. लेकिन शायद ही कोई सरकार सेना में महिला भर्ती बंद कर पाए. कारण? वही महिला अधिकारों की बात करने वाले लोग. नतीजा? एक तरफ महिला सुरक्षा में हमारी कमजोरी तो दूसरी तरफ महिलाओं की क्षमताओं का बेवजह नष्ट होना.

 अब जरा दुसरे पक्ष पर बात करते हैं महिला अधिकारों को एक जामा पहनाया गया है जिसमें उच्छ्रंखलता को ही महिला स्वतंत्रता मान लिया गया. इसी सोच के वशीभूत देर रात तक महिलाओं का बाहर रहना उनके अधिकारों से जोड़ दिया गया. यक़ीनन भारत जैसे विकासशील देश का एक बड़ा तबका आज भी महिलाओं को उपभोग की वस्तु के तौर पर देखता है और आश्चर्यजनक रूप से इसमें निम्न आय/शिक्षा वर्ग वाले लोगों के साथ साथ उच्च आय/शिक्षा वर्ग के लोग भी हैं. यकीन नहीं आता तो आप अधिकतर विज्ञापन/फिल्मों को देखिये. आखिर एक पुरुष अंडरवियर/शेविंग-क्रीम के विज्ञापन में महिलायें क्या कर रही हैं? जी. सही जवाब. वे इसे खूबसूरत बना रही हैं क्योंकि वे सजावट का सामान हैं. यह भी महिलाओं के साथ धोखा ही है और यह धोखा महिला अधिकारों के नाम पर हुआ है. पुरुषों से बराबरी का यही भ्रम महिलाओं के हाथ में जाम और उँगलियों में सिगरेट भी पकड़ा रहा है. थोडा और आगे जायेंगे तो यह अधिकार फ्री सेक्स के आसपास दम तोड़ने लगता है.
कमियां गिनना आसान है इसलिए आप कह सकते हैं कि वही रास्ता मैंने अपना लिया है लेकिन आप गौर से देखेंगे तो यह कमियां एक पैटर्न में हैं. यहाँ महिला अधिकारों के नाम पर महिलाओं को बाजार (विज्ञापन/फ़िल्में ट=इत्यादि) में खड़ा कर दिया गया है या दोयम दर्जे का पुरुष बनने के लिए मजबूर किया जा रहा है (सेना/पुरुष केन्द्रित व्यवसाय). इसमें महिला की अपनी पहचान कहाँ है? मैं व्यक्तिगत तौर पर किसी भी गाँव में डेयरी या बुनकर व्यवसाय में लगी महिला को शाहर के किसी नाईट क्लब या बोर्ड रूम में बैठी महिला से अधिक बदलाव का वाहक मानता हूँ.
ऐसा नहीं है कि महिला अधिकारों के इस खेल में केवल महिलायें ही शिकार बनी हैं. इसका शिकार पुरुष भी बने हैं. यह सब मानते हैं कि घर के रख रखाव और बच्चों के साथ पुरुषों के मुकाबले महिलायें अधिक सहज महसूस करती हैं और वे इसमें दक्ष भी हैं. इसमें कुछ वैज्ञानिक कारण हैं तो कुछ सामाजिक अभ्यास. ये दोनों कारण मिलकर इस तरह के कामों में महिलाओं को अधिक सक्षम बनाते हैं लेकिन पिछले कुछ समय में इस सक्षमता को महिलाओं की सामाजिक मजबूरी कहकर सामने रखा गया तो पुरुषों को यह जिम्मेदारी उठाने के नैतिक और सामाजिक दबाव में घेरा गया. नतीजा? दो अलग अलग जगहों पर दो ऐसे लोगों की तैनाती ऐसे काम में हो गई जिसमें वे सहज ही नहीं हैं.
अंत में, महिला अधिकारों के छलावे से बाहर निकालें. महिलाओं का घर से बाहर निकलना शुभ है मगर इसका मतलब पुरुषों की नक़ल करना भर न मानें. बहुत से ऐसे काम हैं जहाँ महिलायें पुरुषों से बेहतर काम कर सकती हैं. वहां संभावनाएं भी हैं और मौके भी, बस नजर पैदा करें. और सबसे महत्वपूर्ण बात महिलाओं की आजादी का मतलब पुरुषों से मुकाबला नहीं, बल्कि अपनी आजादी के अर्थ उन्हें स्वयं ढूँढने होंगे. पुरुषों को साथी माने, प्रतिद्वंदी नहीं. और हो सके तो नारीवाद के नाम पर नारी-अधिकारों को बेचने वालों के हंगामे से बचें. महिला अधिकार जंग का परिणाम नहीं सफ़र की परिणति होने दें.
महिला अधिकारों के नाम पर यह चलावा केवल सामजिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य में हो रहा हो ऐसा नहीं है. यह खेल कानूनी अधिकारों में भी चल रहा है जिस पर अगले लेख में बात करेंगे….
About Satish Sharma 44 Articles
Practising CA. Independent columnist in News Papers. Worked as an editor in Awaz Aapki, an independent media. Taken part in Anna Andolan. Currently living in Roorkee, Uttarakhand.

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