आखिर हम चाहते क्या हैं? गंगा या जमुना?

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हरिद्वार गंगा किनारे बैठा हूँ, जलस्तर इतना ही है कि नहाने का अरमान पाले आये भक्त केवल पैर धोकर वापस चले जाएँ क्योंकि पानी घुटनों से ऊपर जाने को तैयार नहीं। जल का आवरण उतरा तो गंगा के अन्दर श्रद्धा के नाम पर जमा किया हुआ कूड़ा साफ़ दिख रहा है। जगह जगह पोलिथिन, थर्मोकोल के प्लेट और कप, कपडे, फूल, दीपक और पूजा सामग्री बिखरी पड़ी है। पानी में गन्दगी का मंजर इतना भयानक है कि वही श्रद्धालु नहाने की औपचारिकता निभा रहे हैं जो कम से कम 200 किमी दूर से आये हैं।
हर की पौड़ी से करीब 100 मीटर दूरी पर (गंगा के किनारे ही) मल त्याग करने एक महानुभाव से सामना होता है, शर्म के मारे पूछ नहीं पाता कि इतनी श्रद्धा कहाँ से लाते हो भाई! शायद  सवाल इसलिए भी नहीं पूछ पाता क्योंकि जानता हूँ कि इसी शहर के 150 से अधिक नाले इसी गंगा में पड़ते हैं और कई समाजसेवक इन नालों को बंद करने की लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक से जीत चुके हैं पर प्रशासन सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना लगातार कर रहा है। जब जनता की चुनी सरकार और पढ़े लिखे लोगों से भरा प्रशासन इसी गंगा में रोज हजारों टन मल बहा देता है तो इस व्यक्ति को किस मुंह से रोकूँ?
गंगा घाट पर गंगा सभा के कार्यकर्ता आर्थिक मदद मांगते दिखाई देते हैं तो उनसे पूछता हूँ कि आखिर इस घाट की सफाई क्यों नहीं हुई? जवाब मिलता है “केवल गंगा सभा क्या करेगी भाई साब? पिछले पांच दिन से सभी जगह छुट्टियाँ थी तो लोग छुट्टियाँ मनाने यहाँ आये और नजारा आपके सामने है। जगह जगह गन्दगी फैला कर लोग तो चले गए हमें इसे समेटने में कम से कम एक हफ्ता लगेगा।” तो गंगा अब पिकनिक स्पॉट है? यह जानकारी नई है। कुछ दूर बियर की खाली पड़ी बोतलें इस नई जानकारी को और पुख्ता करती हैं।
इतने में आवाज आती है ‘कान की सफाई करा लो, कान की सफाई’।
मेरे पास बैठे सज्जन पूछते हैं-‘कितने में?’
‘बीस रुपये में’
‘बीस रुपये तो बहुत ज्यादा है भाई!’
‘गंगा पर आये हो साहब, सब गन्दगी साफ़ करके जाओ, दोबारा जाने कब आओ। करवा लो, पंद्रह में कर दूंगा’
भाई साहब मान जाते हैं और गंगा मैया को अपनी गन्दगी दान करने के लिए बैठ जाते हैं।
पिकनिक और गन्दगी छोड़कर जाना, जैसे यही गंगा की उपयोगिता है। गंगा की सफाई को लेकर वोट कर सकते हैं, जिम्मेदारी लेना अपने बस की बात नहीं।
आदतन सोचते सोचते राजनीति की ओर निकल जाता हूँ, ऐसे देश में स्वच्छ भारत की बात करने वाले प्रधानमंत्री महाशय पागल तो नहीं? वो भी तब जब वे इसमें जनता की भागीदारी को अहम् मान रहे हों। क्या वाकई यह मुमकिन है? अमेरिका, जापान, स्विट्जरलैंड आदि मुल्कों को उनकी सफाई के लिए पसंद करने वाले हम क्या अपनी जिम्मेदारी उठाने के लिए तैयार है? शायद नहीं।
दूसरी ओर वे लोग हैं जो जगह जगह की गन्दगी की तस्वीर खींच कर सोशल मीडिया पर शेयर करके प्रधानमंत्री को कटघरे में खड़ा करने लगते हैं। रवैया कुछ ऐसा होता है जैसे प्रधानमंत्री ने इस अभियान की शुरुआत नहीं बल्कि समाप्ति की घोषणा की हो और इसमें शामिल हथियार (झाड़ू) का आविष्कार उन्होंने ही किया हो। यही लोग जनता को इस सफाई अभियान में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कहने से डरते हैं, क्योंकि यह उनके राजनैतिक हितों के लिए  ठीक नहीं। खैर! दिल तो यही कहता है कि देश में सफाई के साहसिक अभियान की शुरुआत करने वाला यह व्यक्ति नाकामयाब न  हो और हम अपनी कुछ जिम्मेदारी निभा पायें।
दूर कहीं भजन चल रहा है ‘गंगा मैया में जब तक ये पानी रहे, मेरे सजना तेरी जिंदगानी रहे।’ सवाल अचानक आता है कि गंगा के पानी से सजना की जिंदगानी को जोड़ने वाला आम व्यक्ति क्या वाकई सजना की अकाल मृत्यु के लिए इतना उतावला है? तभी उम्मीद की एक किरण एक बच्चे के रूप में सामने आ जाती है जो घुटनों घुटनों पानी तक नहाते हुए अचानक ठिठक जाता है जब उसके सामने शिव की गत्ते की प्रतिमा तैरते हुए आ जाती है जो शायद किसी भक्त ने गंगा के हवाले की होगी। लड़का तस्वीर को किनारे पर लाकर अपनी माँ को पकड़ाता है और कहता है ‘लोग गंगा को भी यमुना समझ लेते हैं।’
भविष्य हमारे अपने हाथ में है, हमें एक और यमुना चाहिए या हम अभी भी गंगा को गंगा बनाये रखने को तत्पर हैं।

About Satish Sharma 44 Articles
Practising CA. Independent columnist in News Papers. Worked as an editor in Awaz Aapki, an independent media. Taken part in Anna Andolan. Currently living in Roorkee, Uttarakhand.

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