२६ जून आती है तो बहुत सी जगहों पर आपात काल पर बहुत से लेख हर साल पढ़ने को मिल जाते हैं इस बार भी वही हो रहा है. इस बार बहस में एक नया पहलू भी है जो माननीय अडवाणी जी के उस बयान से आ गया है कि आपातकाल को लगाने वाली शक्तियां आज ज्यादा मजबूत हैं और यह मानने का कोई कारण नहीं है कि आपात काल दोबारा नहीं लग सकता. ऐसे में इस बात को लेकर विश्लेषणों की बाढ़ आ गई कि क्या आपातकाल दोबारा लग सकता है? अगर अब आपात काल लगा तो क्या होगा? क्या मीडिया ऐसा होने देगा? क्या सोशल मीडिया की ताकत इसे रोक पायगी? क्या भारत दोबारा वही सब देखने और झेलने के लिए तैयार है?
हम लोग जिस आपदा से गुजर जाते हैं उसको एक नाम दे दिया जाता है और उसकी एक तस्वीर बना ली जाती है. जैसे दक्षिण भारत में जब पहली बार सुनामी आई उस से पहले सुनामी शब्द को आम जनता में शायद ही कोई जानता हो लेकिन अब यह एक आम शब्द है. इसी तरह आपातकाल के बारे में हुआ. आपातकाल लगा और हमने अपने मन में एक तस्वीर बना ली. एक आदेश सरकार का, हर चौराहे पर सेना और पुलिस, नागरिक अधिकारों का खात्मा, विरोध करने वाले एक लम्बे और अनिश्चित समय के लिए जेल में. अगर यही आपातकाल है तो यकीन मानिये यह कभी नहीं होने वाला और इसका आपातकाल के एकदम बाद बनी मोरारजी देसाई सरकार के कानून मंत्री श्री शांति भूषण जी को जाता है. जिन्होंने मोरारजी देसाई सरकार को मिले प्रचंड बहुमत का इस्तेमाल संविधान में ऐसे संशोधन करने के लिए किया जिस से किसी भी सरकार के लिए आपातकाल लगाना लगभग नामुमकिन हो जाए. अब आपात काल लगाने के लिए कैबिनेट की मंजूरी के साथ दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत की जरूरत होगी जो बहुपार्टी लोकतंत्र में लगभग नामुमकिन सी बात है. इसके अलावा भी बहुत सी अडचनें हैं जो आपातकाल को मुश्किल बना देती हैं. इसके लिए शांति भूषण जी बधाई के पात्र हैं. (आम आदमी पार्टी के समर्थक शायद इस बात से असहमत हों क्योंकि उनके लिए शांति भूषण केवल गद्दार और देशद्रोही हैं.)
अब सवाल यह है कि अगर आपातकाल लग नहीं सकता तो यह चर्चा क्यों? यह हौवा खड़ा क्यों किया जा रहा है? दरअसल लोकतंत्र में किसी भी बुराई के आने के लिए जब आप एक रास्ता बंद कर देते हैं तो वह दूसरा रास्ता तलाश लेती है. यही आपातकाल के साथ हुआ है. आपातकाल की मूलभावना है किसी भी देश कि जनता को वह करने के लिए मजबूर करना जो सत्ता चाहती है. ऐसा करने में सत्ता का विरोध आड़े आता है और सत्ता के विरोध के तीन साधन हैं, मीडिया, जनमानस की आवाज और सड़क पर चलने वाले आन्दोलन. एक एक कर तीनों की मौजूदा हालत देखते हैं.
१९७७ में जहाँ एक ओर आल इंडिया रेडियो और पीटीआई तक सरकार के खिलाफ ख़बरों को खुलकर छापता रहा (यकीनन आपातकाल की घोषणा से एक दिन पहले तक) वहीँ आज लगभग हर मीडिया चैनल और अखबार वही छापता है जो सरकार चाहती है. बात मीडिया चैनल्स की करें तो बहुत से चैनल सीधे तौर पर राजनैतिक पार्टियों द्वारा खोले गए हैं जो अपने पितृ पार्टी की सुविधा से ख़बरों का चयन करते हैं और जरूरत पड़े तो ख़बरें गढ़ने में भी इन्हें कोई गुरेज नहीं. बाकि बचे चैनल किसी न किसी मीडिया हाउस के स्वामित्व में हैं जिनकी डोर आखिर कार किसी उद्योगपति के हाथों में बंधी है. उद्योगपति को खबरें नहीं मुनाफा चाहिए जो सरकार से विरोध करके नहीं कमाया जा सकता क्योंकि सरकार के विरोध का मतलब है अंदर की सूचनाओं और सरकारी विज्ञापनों का प्रवाह रुक जाना और चैनल (और साथ ही उद्योगपति के बाकी उद्योगों का भी) का अपनी मौत आप मर जाना. यानि मीडिया वही दिखेगा जो सरकार चाहेगी. बीच में प्रेशर रिलीज करने के लिए सरकारी आलोचना जरूरी है ताकि खबर के खबर होने का भ्रम बचा रहे. हाँ, प्रिंट मीडिया में इक्का दुक्का अखबार ऐसे हैं जो अभी भी पत्रकारिता कर रहे हैं, खबरे छापना आसान है पत्रकारिता मुश्किल.
बात जनमानस की आवाज की करें तो उसके दो सबसे मजबूत साधन इन्टरनेट और सोशल मीडिया माने जाते हैं. राय बनाने में इन दोनों माध्यमों की अपनी भूमिका है. भले ही इस दोनों साधनों तक कम लोगों की पहुँच है लेकिन देश भर में माहौल बनाने में ये दोनों संसाधन कितने कारगर हैं यह बताने के लिए २०१४ के चुनाव का हवाला देने की शायद जरूरत नहीं है. ऐसे में यह सवाल भी उठाना जरूरी है कि क्या वाकई ये दोनों साधन स्वतन्त्र हैं और इन पर नकेल लगाना सरकार के बस से बाहर है? स्वतंत्रता की पोल तब खुल जाती है जब चुनाव के आसपास हर पार्टी के नकली ट्विटर और फेसबुक एकाउंट्स की बाढ़ सी आ जाती है जो अपनी पार्टी के पक्ष में झूठी सच्ची बातों को फैलाकर माहौल बनाने के लिए काम करते हैं. यही हालत इन्टरनेट पर लिखे जाने वाले ब्लोग्स और अन्य सूचना माध्यमों की भी है. अब अगर देखा जाए तो क्या सरकार इन्टरनेट को कंट्रोल कर सकती है? यक़ीनन कर कर सकती है, चीन में आप बहुत सी साइट्स नहीं देख सकते, पाकिस्तान में आप यू ट्यूब नहीं देख सकते. तो यह मुगालता दिल से निकाल दें कि सरकार चाहे तो भी इसे कंट्रोल नहीं कर सकती.
तीसरा साधन सड़क पर होने वाला विरोध हैं, इस विरोध के तीन साधन हैं, जनांदोलन, सामाजिक संगठनों द्वारा किया जाने वाला विरोध एवं कमर्चारी यूनियन और छात्र संगठन. पिछले चार साल के दौरान एक तथाकथित जनांदोलन के राजनैतिक इस्तेमाल के बाद जनांदोलन करने के लायक ताकत आज के युवा में तो नहीं ही बची है क्योंकि जनांदोलन में भागीदारी के बाद मूर्ख बनने का एहसास एक बार फिर यह पीढ़ी तो शायद नहीं ही पालना चाहेगी. वैसे भी आप किसी भी समाज का इतिहास खंगालेंगे तो जनांदोलनों के उदय में सामान्यतया २०-२५ साल का अंतर होता है और भारत ने अभी एक बड़े आन्दोलन को पार्टी में बदलते देखा है ऐसे में किसी नए आन्दोलन के लिए यहाँ जगह बन पायगी इसमें मुझे संदेह है. सामाजिक संगठनों को कमजोर करने के लिए सरकार जिस तरह काम कर रही है वह सबके सामने है. १५ हजार से ज्यादा सामजिक संगठनों के विभिन्न रजिस्ट्रेशन और मान्यताएं रद्द की जा चुकी हैं और शिकार अभी जारी है (व्यक्तिगत तौर पर इन पद्रह हजार में से कुछ संगठनों पर प्रतिबन्ध लगाने का मैं समर्थक हूँ और इसके लिए जिम्मेदार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेला जा रहा वह खेल है जिसे पैसे से विदेशी संस्थाएं चलाती हैं.). छात्र संगठन और कर्मचारी यूनियनें अपने सबसे कमजोर दौर में हैं, एक तरफ छात्रों को राजनीति में सीधा भागीदार बनाने की गलती ने जहाँ बहुत से शिक्षण संस्थानों का कबाड़ा कर दिया वहीँ इसने छात्रों द्वारा मुद्दों पर आधारित समर्थन या विरोध को पार्टी से जोड़कर इसकी आवाज को भी कुंद कर दिया. कर्मचारी यूनियनों की ताकत का अंदाजा आप इसी सवाल से लगा सकते हैं कि क्या आज रेल कर्मचारी यूनियन का अध्यक्ष यह धमकी दे सकता है कि रेल हड़ताल के द्वारा भारत को रोक दिया जायगा, जैसा कि जार्ज फर्नांडिस ने किया था? नहीं. यानी सडक पर होने वाला विरोध लगभग ख़त्म हो चुका है.
ऐसे में सवाल यह है कि आपातकाल की जरूरत क्या है? सरकार (चाहे वो कोई भी हो) आप तक वही खबरें पहुंचा रही है जो वह चाहती है, सोशल मीडिया के माध्यम से आपके अंदर वही विचार डाले जा रहे हैं जिन्हें आप मानते तो अपना हैं लेकिन उनका निर्माण किसी राजनैतिक पार्टी के वार रूम में होता है, सड़क पर होने वाला विरोध है नहीं, विपक्ष केवल बयानबाजी तक सीमित है. हाँ, बात कहने की आजादी है और वह केवल कुकर का ढक्कन खोलकर प्रेशर रिलीज करने तक सीमित है, जैसे यह ब्लॉग. तो मजा लीजिये आजादी का और खुश रहिये क्योंकि आप आजाद है अपने पिंजरे में. (विभिन्न माध्यमों जैसे विज्ञापन, सरकारी योजनाओं, छद्म आंदोलनों के द्वारा राय बनाने के प्रयासों का जिक्र यहाँ समय और शब्दों की सीमितता के कारण नहीं किया गया है.)
जिन्होंने मोरारजी देसाई सरकार को मिले प्रचंड बहुमत का इस्तेमाल संविधान में ऐसे संशोधन करने के लिए किया जिस से किसी भी सरकार के लिए आपातकाल लगाना लगभग नामुमकिन हो जाए.
Fascism does not follow constitution; someone rightly said, laws are made by brilliants to be followed by fools!
Is constitution being followed today?
There is another point! All emergency people are part of ruling class today and also you must have read today, how RSS and Vajpayee bowed down to Indira Gandhi!
Yes, you rightly said, capital needs to grow and constitution is developed to look after its interest and changes as per its need!
आपने सही समय पर सही विश्लेषण किया है .आज की तारीख में आपातकाल घोषित करने की जरुरत ही नहीं पड़ेगी .एक सीमा तक मीडिया समर्पण कर चुका है .न्यायपालिका भी उसी रास्ते पर है ….शानदार लेख के लिए बधाई