राजनीति के महाभारत में धृतराष्ट्र काल है ये

gita-004

इतिहास लिखे जाते समय सदियाँ अक्सर पन्नों में सिमट जाती है और पूरे साम्राज्य का नाश कर देने वाले जयचंद केवल एक पंक्ति. लेकिन बात जब महाभारत की हो तो यह गौरव ध्रतराष्ट्र को प्राप्त नही होता. अभी हाल में ही हुए एक सर्वे में ध्रतराष्ट्र को महाभारत का सबसे घ्रणित पात्र बताया गया है. दुर्योधन से भी ज्यादा! आखिर ऐसा क्या है जो सौ कौरवों के पिता, एक-पत्निव्रता ध्रतराष्ट्र को उस दुर्योधन से अधिक घ्रणित बना देता है जिसने महाभारत की नींव रखी. सर्वे में जब यही सवाल पूछा गया तो अधिकतर जवाब एक से आये. महाभारत में भले ही ध्रतराष्ट्र ने किया कुछ न हो लेकिन हुआ सब उनकी देखरेख में. ऐसे में ध्रतराष्ट्र ने मौन रहते हुए उन सब गलत चीजों को समर्थन दिया जिसे रोकना उनका फर्ज था.

गौर से देखें तो भारतीय राजनीति का भी यह ध्रतराष्ट्र काल है. फर्क बस इतना है कि इस दौर में ध्रतराष्ट्र एक से ज्यादा है. ऐसे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि कौरवों की संख्या भी सौ से अधिक ही होगी. भारत में सरकार से लेकर हर पार्टी का अपना एक ध्रतराष्ट्र है. बात सबकी करेंगे शरुआत सरकार से:-

सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह शुचिता के ध्वजवाहक भी माने जाते हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था में बदलाव के पुरोधा भी. उनके द्वारा १९९१ में शुरू की गई वह पहल, जिसमे मुक्त बाजार को देश की तरक्की में साझेदार माना गया था, आज दम तोडती दिख रही है तो इसके लिए उन्ही के साथ रहने वाले कौरव जिम्मेदार हैं. आखिर क्या कारण हैं जिसने एक अच्छी शुरुआत के रूप में चले आर्थिक सुधारों के दौर को देश बेचने के लिए लगने वाली बोली में तब्दील कर दिया. क्यों मनमोहन सिंह उस भ्रष्टाचार को रोक नहीं पा रहे हैं जिसे रोकने की बात वह लाल किले से लगातार करते रहे हैं. क्या है ऐसा कि मनमोहन के दम पर कांग्रेस उसी शुचिता, इमानदारी और बेदाग़ छवि का दावा करते हुए चुनाव जीती जिसे उसके अपने मंत्रियों ने तार तार किया. क्यों मनमोहन सिंह ध्रतराष्ट्र बने देश को बिकते हुए देख रहे हैं जब कि बहुसंख्यक आबादी भुखमरी का शिकार है. इस पर बात रखने के लिए शायद लेखन की एक श्रंखला भी कम पड़े इसलिए अगले ध्रतराष्ट्र पर चलते हैं.

बात भाजपा की करें तो यही भूमिका संयुक्त रूप से नरेन्द्र मोदी और लाल कृष्ण आडवानी के पास है. आडवानी अपनी भूमिका से किनारा करने की कोशिश में खुद को भीष्म पितामह घोषित कर चुके हैं. ऐसे में मोदी पर सबकी निगाहे हैं और खुद मोदी की निगाह प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर है. नरेन्द्र मोदी प्रधानमन्त्री की कुर्सी कब्जाने की कोशिश में माया कोडनानी, बाबू बजरंगी, विट्ठल रादडीया, जस्टिस आर के मेहता की ओर से आँखें मूँद कर पूरी तरह ध्रतराष्ट्र की भूमिका में रम चुके हैं.

लेकिन बात यहीं नहीं थमती है. बात किसी भी पार्टी की कर लें. नाम लें या ना लें कोई फर्क नहीं पड़ता. कहीं किसी परिवार के चार या पांच लोग पार्टी पर काबिज है तो कहीं परिवार के बजाय चार या पांच चेहरे पूरी पार्टी की राजनीति तय करते हैं. यही चार पांच लोगों का कोकस पार्टी संविधान और पार्टी कार्यकर्ताओं को नजर अंदाज करते हुए पार्टी की विचारधारा तय करता है. शायद भारतीय लोकतंत्र को पुरानी राजनैतिक कहावतों से पार जाने में अभी वक्त लगेगा जिनमे से एक कहावत “नेताजी रहें शासन में, कार्यकर्ता अनुशासन में” भी है. आम कार्यकर्ता की पार्टी नेतृत्व से यह दूरी लोकतंत्र के लिए घातक भी है और भविष्य के लिए जहर भी.

शायद ध्रतराष्ट्र युग की राजनीति अभी और चले. इन्तजार कीजिये लोकतंत्र की इस द्रौपदी के चीरहरण के आखिरी पल का जब कोई कृष्ण अवतरित हो. या शायद अट्ठारह दिनी महाभारत ही इसका इलाज हो, लेकिन लोकतंत्र में सत्ता बन्दूक की नली से आये तो नतीजे भी घातक ही होते हैं. इसलिए माओवाद से कहो कुछ धैर्य रखे. लोकतंत्र की शांतिवार्ता जारी है.

About Satish Sharma 44 Articles
Practising CA. Independent columnist in News Papers. Worked as an editor in Awaz Aapki, an independent media. Taken part in Anna Andolan. Currently living in Roorkee, Uttarakhand.

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*