मुजफ्फरनगर – क्या है परदे के पीछे के राजनैतिक समीकरण

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मुजफ्फरनगर में जो हुआ उसकी समीक्षा सभी तरीके से की जा रही है. ऐसे में राजनैतिक पक्ष को नजरअंदाज करना गलत होगा. राजनैतिक दृष्टि से देखे तो यह दो समुदायों के बीच का मामला नहीं था. यह मामला था इलाके की उन 18 लोकसभा सीटों का जहाँ हिन्दू और मुस्लिम वोट अहम् भूमिका निभाते हैं. पिछली बार इनमे से 3-3 सीट सपा और भाजपा को तो 6 सीट बसपा, 5 राष्ट्रीय लोक दल को तो एक कांग्रेस को मिली थी.

इलाके के लोगों से बात करें तो पता लगता है सियासत को लहू का जायका कितना पसंद है. जहाँ एक ओर सत्ताधारी पार्टी सपा है तो दूसरी ओर केंद्र में सरकार की सहयोगी राष्ट्रीय लोक दल. दोनों का वोट बैंक एक समुदाय विशेष से आता है. अपने अपने समुदाय विशेष को नाराज ना होने देने का दबाव होना स्वाभाविक है. लेकिन यह दबाव मुख्यमत्री अखिलेश यादव के नेतृत्व में चल रही सपा सरकार पर ज्यादा है.

ऐसे में अखिलेश सरकार पर लगातार यह आरोप लगते रहे हैं कि वह अपने वोट बैंक के चक्कर में गुंडों की गुंडई को भी नजरअंदाज कर रही है. उत्तर प्रदेश के थानों में जाएँ तो हर वक्त एक दो गाड़ियों का सपा की झंडी लगाकर खड़े रहना यह बताता है कि प्रशासन के कामों में स्थानीय सरकारी चमचों का कितना दखल है. ये चमचे समुदाय विशेष से हों तो हत्या की रिपोर्ट सामने लाश होने पर भी पुलिस लिखने से डरती है.

यही सब तब हुआ जब कवाल गाँव में छोटी सी झड़प आपसी मारपीट में बदली और तीन जाने चली गई. यदि प्रशासन उसी वक्त कड़े कदम उठाता तो शायद बात इतनी न बढती. गाँव के ही एक व्यक्ति का कहना है यदि सरकार अपना काम करती तो राजनीति चमकाने का मौका कैसे मिलता? इसलिए पुलिस ने कुछ नहीं किया.

मजबूरन पहले पंचायत फिर महापंचायत हुई. यहाँ भी प्रशासन खामोश रहा. महापंचायत में आते लोगों पर हमला हुआ तो आने वाले वक्त की आहट किसी बहरे को भी सुनाई दे रही थी, पर सरकार को नहीं.

और अब जब बात गाँव गाँव में पहुँच गई है तो दंगों को रोकने के ढोंग किया जा रहा है. गौर से देखे तो ये दंगे ध्रुवीकरण की उसी कोशिश का एक हिस्सा थे जो पिछले एक साल से लगातार उत्तर प्रदेश में हो रही है.

क्षेत्र के राजनैतिक पंडितों की बात पर यकीन करें तो अल्पसंख्यक समुदाय के दिलों में अतिसुरक्षा की भावना बनाए रखना सपा की राजनैतिक मजबूरी है. इसी लिए कई मौकों पर तुष्टीकरण की नीति साफ़ दिखाई देती है. ऐसे में इन बिगड़ते हालात का गणित शुरुआत में सपा के पक्ष में था. ख़तरा होगा तो बचाव करने वाला हीरो भी कहलायगा. लेकिन ऐसी राजनीति करना अक्सर शेर की सवारी जैसा होता है, जिसमे सही समय पर शेर से उतरना जरूरी होता है. इसमे सपा नाकाम रही है. इलाके के राजनैतिक गणित को देखें तो जहाँ इन दंगो की शुरुआत से सपा को फायदा होने वाला था वहीँ इनके चलते रहने से अब फायदा अन्य पार्टियों को मिलता दिख रहा है. ऐसे में सपा लाख कोशिशें करें इस बिगड़ते माहौल का अभी सुधरना मुश्किल है. ऐसा भी संभव है पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही इन तनाव की चपेट में आ जाए.

इन दंगों के शिकार चाहे हिन्दू हो या मुसलमान, लेकिन नुक्सान उसी का हुआ है जो दंगो से बचना चाहता है. दंगों की शुरुआत करने वाले और दंगों को संचालित करने वाले तो अब भी बचे हैं, महफूज हैं. इस देश में यदि आप ‘राजनैतिक’ हिन्दू या मुसलमान हैं तो आप के सब गुनाह इस समीकरण के आधार पर माफ़ कर दिए जाते हैं कि सरकार कौन सी है. बशीर बद्र की बात सही महसूस हो रही है…..

हिन्दू भी मजे में है मुसलमां भी मजे में,

इंसान परेशान यहाँ भी है वहां भी.

एक साथी पत्रकार के अनुसार लखनऊ के निवासी कैलकुलेटर लेकर बैठे हैं. जब तक दंगों के कारण खराब हुई छवि से खोये गए वोट, ध्रुवीकरण से मिलने वाले वोटों से कम होंगे यह खेल चलता रहेगा.

About Satish Sharma 44 Articles
Practising CA. Independent columnist in News Papers. Worked as an editor in Awaz Aapki, an independent media. Taken part in Anna Andolan. Currently living in Roorkee, Uttarakhand.

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