देश में घोटाला हुआ और कोयले में लगी चिंगारी को दबाने की तमाम कोशिशें हुई, कभी जीरो लॉस थ्योरी के नाम पर तो कभी सीएजी को निशाने पर लेकर।दमघोंटू धुंआ सड़क तक आकर सत्ता की पोल खोलने लगा तो जांच भी शुरू हुई। जांच के दौरान भी रवैया वही रहा जो किसी भी केस में होता है जहाँ दांव पर बड़े रसूख वालों का रसूख लगा हो। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की सख्ती ने कुछ आस बंधाई जब सीबीआई को पिंजरे में बाद तोता कहा गया जो भारतीय न्यायव्यवस्था और लोकतान्त्रिक भ्रष्टाचार के इतिहास में एक मुहावरा बन गया। इसके बाद कोयला घोटाले की जांच पूरी तरह सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में होने लगी तो एसी कमरों में बैठे तथाकथित बुद्धिजीवियों को भी लगा कि अब सब ठीक है।
लेकिन तीन दिन पहले जब पूर्व कोयला सचिव पीसी पारिख और प्रख्यात उद्योगपति बिड़ला जांच के दायरे में आये तो बयानबाजी के कोहरे में सुप्रीम कोर्ट की छवि भी धुंधली नजर आने लगी।
पहला बयान उस अधिकारी का आया जो अपनी चालीस साल की बेदाग़ सेवा का हवाला देकर ईमानदारी की बात करते हुए सीबीआई के फैसले और रवैये पर सवाल उठा रहा था।लोकतंत्र में सत्ता के उच्चतम प्रतिष्ठान प्रधानमन्त्री पद की ओर उठती उंगली यकीनन लोकतंत्र के मुखिया की कुर्सी के पायों के बौनेपन का एहसास करा रही थी। प्रथम साजिशकर्ता के तौर पर प्रधानमन्त्री के शामिल होने का मतलब है लोकतंत्र की जीत और जो लोकतंत्र की ही नाक काटकर हासिल हुई हो। पारदर्शिता और न्यायपरकता के इस खेल में अपनी ख़ामोशी से हजारो सवालों की लाज रखने वाला पीएम जब खुद सवालों के दायरे में है तो सवालों की लाज भले ही रखी जा रही हो परन्तु लोकतंत्र की लाज का सवाल कहीं दिखाई नहीं देता।
दूसरा बड़ा सवाल उन दलों की प्रतिक्रया से पैदा हुआ जिनपर जिम्मेदारी थी इस लोकतंत्र के पहरुए बनकर सरकार को कुछ गलत न करने देने की। लेकिन प्राथमिक जिम्मेदारी का एहसास होने की बजाय इस बार भी रटे रटाये बयान सामने आये जो 2014 के लिए निशाना साधते दलों की कमान से निकले हर तीर पर लिखे होते हैं। तो क्या वाकई 2014 की लड़ाई इतनी महत्वपूर्ण है कि लोकतान्त्रिक मर्यादा का भी उल्लंघन आसानी से किया जा सकता है। शायद दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दंभ रखने वाले दल यही जताना चाहते हैं। लेकिन जनता तक पहुँचते संकेत तो प्रधानमन्त्री के खिलाफ उमड़े गुस्से के धुएं में कहीं खो गए लगते हैं।
तीसरा और सबसे बड़ा झटका देश की राजनीति का मिजाज भी समझा गया और सत्ता पूँजी समीकरण की रासायनिक संरचना भी। लुटियंस की दिल्ली के प्राचीरों के स्वघोषित संरक्षकों ( केंद्रीय मंत्रियों) में से एक केन्द्रीय वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा का बयान सर्वाधिक चौंकाने वाला था। उन्हें ना चिंता लोकतंत्र के सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति की हो रही छीछालेदार की थी ना सीबीआई जांचों और उठती उँगलियों के डर से हर फ़ाइल पर कुंडली मारकर बैठी नौकरशाही के आत्मविश्वास की। उनके बयान में चिंता जाहिर हुई कोर्पोरेट के ऊपर उठती उँगलियों की।इस के लिए वे सुप्रीम कोर्ट पर ऊँगली उठाने से भी बाज नहीं आये।वाणिज्य मंत्री होने के नाते उनकी चिंता वाजिब है परन्तु वाणिज्य मंत्री वे इसलिए बने क्योंकि लोकतंत्र के प्यादे कहे जाने वाले लोगों ने उन्हें यह जिम्मेदारी दी। लेकिन उनके बयान से सत्ता के कार्पोरेटाना पहलू की पोल एक बार फिर खुलती नजर आई। झारखण्ड, उड़ीसा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश से आने वाले कम से कम 80 सांसद ऐसे हैं जो केवल कारपोरेट से सम्बंधित सवाल पूछते हैं।राज्यसभा में कम से कम 65 सांसद कोर्पोरेट घरानों के सीधे सीधे नुमाइन्दे हैं।किसानों से सम्बंधित यही आंकडा आप मांगेंगे तो हम कहेंगे किसान अब नेता नहीं बनता उलटा नेता अभिनेता अक्सर किसान बनते दिखाई देते हैं और यह सामजिक जीवन का हिसा नहीं होता बल्कि टैक्स प्लानिंग का हिस्सा होता है।
एक आखिरी और सबसे बड़ा सवाल जो जनता के सामने और आया है वह है सुप्रीम कोर्ट की विश्वसनीयता का। अगर सुप्रीम की निगरानी में काम करते हुए भी सीबीआई कुछ गलत कर सकती है तब तो लोकतंत्र शब्द को भी हैरी पॉटर के खलनायक वोल्डरमोर्ट की तरह निषिद्ध कर देना चाहिए। लेकिन इस सवाल का जवाब ढूँढने की जिम्मेदारी उसी जनता की है जिसे रोज सुबह मजदूरी पर जाना होता है ताकि शाम तक घर में सब्जी रोटी का जुगाड़ हो सके।
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