संसद में पेश खाद्य सुरक्षा बिल को पढ़ा. इस में इतनी खामियां मिली कि लगा जैसे ये बिल गरीबों को भरपेट अनाज देने के लिए नहीं बल्कि सिर्फ वोट लेने के लिए लाया गया है.
किसी भी कानून की विवेचना कुछ तथ्यों पर की जाती है. जैसे कि जिस चुनौती से निपटने के लिए यह कानून बनाया जा रहा है वह उसमे कितना कारगर है? उस कानून में समस्या के फौरी इलाज के अलावा स्थायी समाधान की शक्ति भी है या नहीं? यह कानून न्याय की अवधारणा पर कितना खरा उतरता है? क्या वाकई यह कानून पिरामिड के आखिरी तल पर खड़े व्यक्ति तक लाभ पहुंचा पायगा या नहीं?
इस बिल को देखे तो बार बार इस बिल को इस तरह पेश किया जा रहा है जैसे इस बिल के आने से देश से भुखमरी मिट जायगी. बिल में कहा गया है कि गरीब परिवारों को प्रति व्यक्ति पांच किलो अनाज दिया जायगा. सवाल यह है कि क्या महज पांच किलो सस्ते गेंहूँ चावल और मोटे अनाज देकर किसी व्यक्ति की भूख मिटाई जा सकती है. जबकि भूख ऐसी प्रक्रिया है जिसमे पौष्टिक आहार न मिलने से इन्सान का जिस्म धीरे धीरे कमजोर पड़ता है. बीमारियाँ उसे अपनी जड़ में ले लेती हैं. और आखिर में वह असमय दम तोड़ देता है. चिकित्सा विज्ञान के जानकार बताते हैं की पांच किलो अनाज से किसी व्यक्ति को थोड़े अधिक समय तक जिन्दा रखा जा सकता है लेकिन स्वस्थ नहीं रखा जा सकता. ऐसे में जब किसी बिल का मूल मकसद ही विफल हो तो उसका क्या औचित्य?
दूसरा तथ्य यह है कि देश के केवल १६.२ करोड़ परिवार इस बिल के दायरे में आयेंगे. ऐसे में यह सवाल मौजूं है कि एक बड़े तबके को बिल से बाहर रखना क्या वाकई एक सही कदम है या यह केवल ऊंट के मुंह में जीरा की कहावत को चरितार्थ करना होगा?
तीसरा और बड़ा दुखद तथ्य यह सामने आया कि देश में घाट रही गरीबी केवल आंकड़ों का एक खेल भर है. आंकड़ो की इस बाजीगरी को समझने के लिए एनसी सक्सेना समिति की रिपोर्ट को देखना जरूरी है. रिपोर्ट के अनुसार १९७३-७४ में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की पहचान प्रति दिन कैलोरी उपभोग के आधार पर की गई थी जो एक वैज्ञानिक आधार भी था. इसके लिए ग्रामीण क्षेत्र में २४०० किलो कैलोरी और शहरी क्षेत्र में २१०० किलो कैलोरी से कम आहार लेने वाला व्यक्ति गरीबी रेखा से नीचे माना गया था. आज अगर इसी मानक को लागू कर दें तो कम से कम 97 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे मिलेंगे. लेकिन नीतियां बने वाले लोगों ने गरीबी हटाने के बजाय ये मानक हटा दिए और मौजूदा मानको के हिसाब से केवल १८२० किलो कैलोरी से कम लेने वाले व्यक्ति को गरीब माना जाता है. फिर भी २८.३ फ़ीसदी यानी लगभग ३६ करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं. सवाल यह है कि जीतनी म्हणत इन आंकड़ों से खेलने में कि गई यदि उसकी अधि म्हणत भी देश के गरीबी हटाओ अभियान पर हो जाती तो क्या देश में गरीबी बच पाती?
एक और गंभीर मसला है कि योजना पर अमल किस तंत्र के माध्यम से होगा और वह तंत्र कितना इमानदार है? खाद्य बिल सुरक्षा विधेयक के अनुसार अनाज सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी डी एस) के तहत दिया जायगा. सीएजी कि रिपोर्ट कई बार पीडीएस की बखिया उधेड़ चुकी है. हर रोज अख़बारों में पीडीएस के अंदर व्याप्त भ्रष्टाचार पर खबरें छपती हैं. ऐसे में इस तंत्र को इतनी बड़ी योजना का हिस्सा बनाना कहाँ तक ठीक रहेगा? क्या सरकार पहले से यह मान कर चल रही है कि गरीबों का अनाज घूसखोर अफसर, कारोबारी और बिचौलिए खा जाएँ तो भी देश से गरीबी और भुखमरी हट जायगी?
एक और बड़ा सवाल इस बिल के आर्थिक पक्ष को लेकर भी है. बिल में बहुत सारे खर्च और काम राज्य सरकारों पर डाल दिए गए हैं. यदि खाद्य सुरक्षा राज्यों को ही करनी है तो केंद्र क्या करेगा यह स्पष्ट नहीं है. ऐसे में बिल के बाद वितरण प्रणाली के कार्यान्वयन में आने वाली दिक्कतों को सहज ही समझा जा सकता है जबकि केंद्र और राज्य सरकारें आपसी हितों को लेकर नित नए मसलों पर भिड़ी रहती हैं.
कुल मिलाकर इस बिल में सरकार दान पर आधारित ऐसी व्यवस्था को बढ़ावा देना चाहती है जिससे जनता का जन संघर्ष ख़त्म हो जाए.इस के बजाय यदि रोजगार के कुछ अवसर और जनभागीदारी को बिल में ध्यान में रखा जाता तो परिणाम कहीं बेहतर आते.
७० के दशक में गरीबे हटाओ भूख मिटाओ का नारा याद आता है जो तार्किक लगता है. गरीबी के हटने से भूख मिट जायगी यह तो समझ में आता है लेकिन पांच किलो अनाज से देश की भुखमरी और गरीबी हटाने का सपना देखने वाली सरकारों की मंदबुद्धि पर हंसें या रोयें यह जनता समझ नहीं पा रही है. इस बिल के आने से भी कुछ बदल जायगा इस की उम्मीद कम दिखती है. जनता तब भी छली गयी है अब भी छली जायगी. और यह खेल तब तक चलता रहेगा जब तक सत्ता में और सत्ता के द्वारा बने गई योजनाओ के क्रियान्वयन में जनता की सीधी भागीदारी नहीं होगी.
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