इकतीस साल पहले साल की इसी तिमाही में सुप्रीम कोर्ट ने देश के राजनैतिक, सामाजिक और कानूनी क्षेत्र में बड़ी उथल पुथल मचाने वाला फैसला दिया था. एक मुस्लिम व्यक्ति ने अपनी पत्नी को तलाक दिया, गुजारे भत्ते के बिना. वयोवृद्ध महिला ने निचली अदालत, हाई कोर्ट से होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक अपनी लड़ाई जारी राखी और अंततः २३ अप्रैल १९८५ को मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली ५ जजों की बेंच ने महिला के हक़ में फैसला दिया. फैसला विवादास्पद होना था सो हुआ लेकिन विवाद पर नजर डालने से पहले फैसले के कुछ पहलू नजर में लाने लायक हैं.
फैसले के कारण देश के दो कानून आमने सामने थे. मुस्लिम पर्सनल लॉ, जिसके अनुसार तलाकशुदा मुस्लिम महिला को कोई गुजारा भत्ता देना जरुरी नहीं है सिवाय मुद्दत-ए-इद्दत के जो केवल चार महीने दस दिन का समय होता है; और क्रिमिनल प्रोसीजर कोड का सेक्शन १२५, जिसके अनुसार किसी भी सामर्थ्यवान व्यक्ति को अपनी पत्नी के गुजारे के लिए खर्च वहन करना चाहिए भले ही पत्नी अलग रहे, तलाक लेकर या बिना तलाक लिए.
सुप्रीम कोर्ट के अनुसार शाहबानो के मामले में सीपीसी का सेक्शन १२५ लगाना ज्यादा मौजूं है. पांच जजों ने एक स्वर में दिए गए फैसले में कहा “मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार कोई मुस्लिम व्यक्ति अपनी पत्नी को छोड़ सकता है, जब वह चाहे, किसी अच्छे कारण से, बुरे कारण से या बिना किसी कारण के. यह कानून न केवल आदिम जमाने की परम्परा जैसा है बल्कि बर्बरतापूर्ण है. असमानता के क्षेत्र में गोल्ड मैडल लेने वाला यह कानून जितनी जल्दी हो ख़त्म कर देना चाहिए. केवल इद्दत के दौरान दिया जाने वाला गुजारा भत्ता न केवल ऊँट के मुंह में जीरे जैसा है बल्कि यह पति को उतना गुजारा भत्ता देने से भी रोक देता है जितना एक महिला के लिए दो वक्त की रोटी खाने के लिए जरुरी है ताकि वह अपनी आत्मा को शरीर में टिकाये रख सके. क्या हम महिला को इस्तेमाल करके फेंक देने वाले देश के तौर पर अपनी पहचान बनाना चाहते हैं?”
इसके आलावा सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “संविधान का अनुच्छेद ‘कॉमन सिविल कोड’ लागू करने के लिए कहता है लेकिन राजनैतिक पार्टियाँ आपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए इस ओर अभी तक कुछ कर नहीं पाई और आगे भी इसकी उम्मीद कम है. (इकतीस साल बाद भी हालात वही हैं.) क्या देश में सामान कानून का अधिकार देने वाला अनुच्छेद ४४ संविधान का मृत हिस्सा भर है?” सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार “कॉमन सिविल कोड देश की एकता के लिए इसलिए भी जरुरी है कि बेहूदा धार्मिक मान्यताओं का बंधक बना समाज संविधान में आस्था रख सके और यह आस्था के अनेक स्तंभों के रहते संभव नहीं इसलिए बाकी क्षुद्र स्तंभों का टूटना जरुरी है. फैसला हमें लेना है कि ये आस्थाएं बड़ी हैं या संविधान?”
आज फिर से ऐसा मौका आया है जब तथाकथित सेकुलर, पूर्ण सेकुलर, छद्म सेकुलर और सही में सेकुलर (क्योंकि हर कोई खुद को सेकुलर कहलाना ही पसंद करता है.) तबकों के समर्थक और कर्ता धर्ता फैसला लें कि क्या देश को एक कॉमन सिविल कोड की जरुरत है या नहीं? उसके पहले यह पड़ताल करते हैं कि क्या इस मामले में उन लोगों की क्या राय थी जिनकी आइडियोलॉजी का दम भरकर यह विरोध किया जाता है?
संविधान निर्माता कहे जाने वाले डा. अम्बेडकर ने संविधान में अनुच्छेद ४४ का प्रावधान इसलिए किया कि वे देश को एक कानून के सूत्र में बंधा देखना चाहते थे. जब उन्हें डा. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा कि भारत एक कानून में बंधने के लिए बहुत बड़ा देश है तो उनका जवाब था कि इतने बड़े देश के लिए जब हम एक कोमन प्रोसेजर कोड बना सकते हैं तो एक कानून क्यों नहीं? उनके अनुसार “जब तक ये पर्सनल कानून रहेंगे देश एक नहीं हो पायेगा. हमें जाति धर्म से ऊपर उठना है या नहीं? फैसला हमारा है.”
प्रधानमंत्री नेहरु भी कानून मंत्री डा. आंबेडकर से सहमत थे लेकिन डा. राजेन्द्र प्रसाद और बाकी लोगों के मत को सम्मान देते हुए इस मामले को धीरे धीरे लागू करने पर सहमति बनी. समय सीमा पांच साल तय हुई और रणनीति के अनुसार पहले उस पक्ष से समबन्धित कानून को बदला जाए जो बदलाव के लिए अधिक खुला हो. देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले धर्म हिन्दू को इस प्रयोग के लिए चुना गया और धार्मिक हिन्दू मान्यताओं के खिलाफ खड़े होने के बावजूद हिन्दुओं से समबन्धित कई कानूनों में बदलाव किये गए. विरोध हुआ पर नेहरु अपने फैसले पर अड़े रहे. इस कानून ने जाति व्यवस्था, तलाक, महिलाओं को संपत्ति में अधिकार और अन्य कई बड़े बदलाव किये जिनके अच्छे प्रभाव हम आज हिन्दू समाज में देख पाते हैं.
बहुत से संगठनों के विरोध के कारण इन बदलावों को आने में कई साल लग गए और नेहरु और आंबेडकर अपनी तय समय सीमा से बहुत पीछे चल रहे थे. लेकिन यह एक बड़ी सफलता थी जिसे वे आगे दोहराना चाहते थे. इसके बाद मुस्लिम संगठनों के विरोध के कारण यह संभव न हो सका. आंबेडकर और सरदार पटेल जैसे शक्ति स्तंभों के गिर जाने से नेहरु कमजोर हुए और अपने एजेंडे के विरोध के आगे घुटने टेक गए. इसके बाद इंदिरा ने किसी भी विरोध से बचने की रणनीति चुनी तो १९७७ में राजनैतिक उथल पुथल ने इसका मौका नहीं दिया. तीन युद्ध, इमरजेंसी, जनता पार्टी सरकार का असमय पतन, इंदिरा की दम्भपूर्ण जीत और उसके बाद असमय मृत्यु के बाद नौसिखिये राजीव के प्रधानमंत्री बनने ने देश को कॉमन सिविल कोड की सुध लेने का मौका नहीं दिया.
१९८५ में शाहबानो केस ने यह मौका दिया और यह बेहतरीन मौका इसलिए भी था कि राजीव गाँधी एक खुले दिमाग के व्यक्ति थे, जिनके पार ४०० से ज्यादा सांसद थे और राज्यसभा में भी वे बहुमत में थे. राष्ट्रपति भवन में कांग्रेस की छाप थी तो सम्बंधित मंत्री आरिफ मोहम्मद खान भी इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पक्ष में खड़े थे. आरिफ मोहम्मद खान ने न केवल संसद के इस पर बहुचर्चित भाषण दिया बल्कि राजीव गाँधी के सामने उन्होंने खुले तौर पर कहा कि यह मौका है जब बड़ा बदलाव आ सकता है और अगर इसके लिए कोई निंदा उन्हें झेलनी हो तो वे तैयार हैं. यानी वे अपने कंधे पर रखकर बन्दूक चलाने के लिए राजीव को मौका दे रहे थे. इसके बाद मुस्लिम संगठनों के आगे घुटने टेक देने के बाद राजीव ने आरिफ मोहम्मद खान से दूरी बना ली तो आरिफ मोहम्मद खान ने कांग्रेस छोड़ दी. राजीव गाँधी को डर था कि ‘इस एक सही फैसले के कारण’ (आरिफ मोहम्मद खान के अनुसार व्यक्तिगत बैठकों में राजीव खुद इस फैसले को यही कहकर संबोधित करते थे.) कांग्रेस मुस्लिम वोट खो देगी. इस प्रकार बड़ा बदलाव लाने की बजाय राजीव ने अपने ४०० सांसदों का इस्तेमाल सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने में लिया. और इस तरह गाँधी परिवार ने खुद अपने पुरखे नेहरु की विरासत को धोखा दे दिया.
आज भी कांग्रेस से कुछ बेहतर उम्मीद करना बेवकूफी है मगर असली सवाल महिला अधिकारों की बात करने वाले उन छद्म महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं से है जो इस मामले पर रहस्यपूर्ण चुप्पी बंधे हुए हैं. महिला अधिकारों के मामले में बड़े बदलाव की लड़ाई से बचना सुविधापूर्ण सामाजिक कार्यों की बेहतरीन बानगी है. विडम्बना यह है कि पोंगापंथी और ढकोसले का इल्जाम झेलने वाली भाजपा और संघ ब्रिगेड कॉमन सिविल कोड के पक्ष में खड़ी है. तो क्या कांग्रेस का विरोध केवल इसलिए है कि भाजपा इसके समर्थन में हैं. शायद हाँ.
आज फिर एक मौका है जब ट्रिपल तलाक के खिलाफ उत्तराखंड के काशीपुर की सायरा बानो सुप्रीम कोर्ट में इस लड़ाई को लड़ रही है. सामाजिक बहिष्कार और कठमुल्लाओं की धमकियों के बावजूद वो अपने फैसले पर टिकी हैं. दूसरा मोर्चा तृप्ति देसाई ने हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश को लेकर खोला हुआ है. लेकिन क्या सुविधा की राजनीति करने वाले अपने पुरखों की बात का सम्मान करेंगे? क्या महिला अधिकारों के नाम पर सरकारी मदद से पलने वाले सामाजिक संगठन इस मामले पर सामने आयेंगे? शायद नहीं. क्योंकि निशाने पर आने से बेहतर है निशाना बने हुए लोगों के मकबरे बनाकर चंदा खाते हुए परिवार पालना. चंदा आर्थिक भी हो सकता है और वोट के रूप में राजनैतिक भी….
शानदार लेख .बधाई