२००३ से २०१३ तक भारत में चीन के विशेष प्रतिनिधि दाई बिंगुओ ने भारत चीन के विदेश संबंधों पर ताजा किताब ‘स्ट्रेटेजिक डायलाग्स’ लिखी है. यह किताब २००३ से २०१३ के बीच भारत चीन संबंधों पर आधिकारिक दस्तावेज की तरह है. किताब से कई बातों का पता लगा:-
- २००३ में वाजपेयी सरकार के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रिजेश मिश्र चीन सीमा विवाद पर जल्दी किसी समझौते पर पहुँचने के इच्छुक थे.
- दाई के अनुसार २००३ के चीन दौरे में वाजपेयी जी ने तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री वेन जिआबाओ को इस बात के लिए राजी किया कि सीमा विवाद पर बातचीत के लिए विशेष अधिकारी नियुक्त किये जाएँ जो अपने अपने प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करें और समाधान राजनैतिक स्तर पर निकाला जाए.
- वाजपेयी कुछ बड़े कदम उठाकर इस मामले को सुलझाना चाहते थे. उनके अनुसार ‘भारत और चीन को अपने नक़्शे स्थायी रूप से दोबारा लिखने होंगे.’ जिसका मतलब था कि चीन और भारत विवादित जमीन का कुछ हिस्सा छोड़कर ही किसी समझौते पर पहुंचेंगे.
- इस मामले को सुलझाने की वाजपेयी सरकार की तत्परता का पता इस बात से लगता है कि जब पहले दौर की बातचीत में चीनी प्रतिनिधि मंडल ने इस मामले को सुलझाने के लिए लक्षित समय ५ साल रखने का सुझाव दिया तो ब्रिजेश मिश्र ने कहा “अगर हम इतना लम्बा समय लेंगे तो कोई नतीजा नहीं निकलेगा. वाजपेयी जी अगले दो साल में कुछ निर्णय करना चाहते हैं.”
- इसके बाद कई दौर की बैठकों में कई अहम् मुद्दों पर सहमति बन गई थी और केवल १० प्रतिशत काम बाकी था. दाई के अनुसार इसके लिए वाजपेयी सरकार की समाधान को लेकर प्रतिबद्धता जिम्म्मेदार थी जिसने कई अहम बैठकों में कई बड़े फैसले लेने की हिम्मत दिखाई.
- इसके बाद २००४ के मध्य में भाजपा आम चुनावों में व्यस्त हुई तब भी वाजपेयी इस मामले पर लगातार प्रगति देख रहे थे और चुनाव नतीजों के एक माह के अन्दर बड़ा फैसला आने की सम्भावना थी.
- लेकिन दुर्भाग्य से भाजपा चुनाव हार गई और केंद्र में ‘दो केन्द्रों वाली’ एक कमजोर सरकार बन गई. जिसकी रूचि चीन विवाद की बजाय खुद को देश के अन्दर स्थिरता प्रदान करने में थी.
- दाई के अनुसार यूपीए सरकार ने कभी भी सीमा मुद्दे को हल करने में कोई रूचि नहीं दिखाई और वे यथास्थिति को बनाये रखने में अधिक उत्सुक थे.
- दाई के अनुसार इस मामले पर आखिरी प्रगति २००४ में हुई थी हालांकि बातचीत लगातार जारी रही. दाई के अनुसार इस मामले में पूरा तकनिकी काम तभी हो गया था लेकिन यूपीए सरकार ने कोई राजनैतिक इच्छाशक्ति कभी दिखाई ही नहीं.
- दाई यह भी उम्मीद जताते हैं कि अब जबकि दोनों देशों में मजबूत जनादेश वाली सरकारें हैं तो शायद इस मामले पर कोई प्रगति संभव हो.
इण्डिया टुडे में किताब की समीक्षा पढ़ी तो बहुत सीमित बातें पता लगी. उत्सुकता हुई तो पूरी किताब मंगाकर पढ़ी. कई चौंकाने वाली चीजें सामने आई.
पता लगा कि किस तरह एक सरकार दस साल तक ऐसे समझौते को टालती आई जो दो देशों के संबंधों में नया युग लेकर आता. किस तरह यूपीए सरकार इसलिए टिकी रही क्योंकि वह केवल टिके रहना चाहती थी. मामला केवल चीन का नहीं है किसी भी मामले में देख लीजिये कांग्रेस केवल यथास्थिति बनाये रखें में यकीं रखती है. याद कीजिये अर्जुन सिंह का वह बयान “हम कुछ समस्याओं को इसलिए नहीं सुलझाते क्योंकि सुलझने के बाद वे हमारे लिए समस्याएँ बन जाती हैं.” २००४ से २०१४ का परिदृश्य देखते हैं तो कुछ भी सकारात्मक नजर नहीं आता. एक तरफ लगातार घोटाले तो दूसरी ओर नीतिगत फैसलों का अभाव. क्या इस सरकार ने एक परिवार को पालने के अलावा भी कुछ किया है दस साल में?
और क्या यह पार्टी अब भी कुछ और कर पा रही है? देश के ऊपर एक मौन और कठपुतली नेता को थोपने के बाद अब एक मंदबुद्धि व्यक्ति को नेता बनाने की कोशिशें. हेलिकोप्टर घोटाले में सीधे सीधे संलिप्तता का मामला सामने आने पर भी बेशर्मी से बचाव. उस पर देश से भ्रष्टाचार खत्म करने की लड़ाई लड़ने वाले महापुरुष का कवर फायर. आखिर क्या है जो बचा है?
इस पर तुर्रा हैं वे लोग जो सही नीतियों पर बात करते ही भक्त का तमगा लेकर बैठे रहते हैं कि आप बोलो और हम चिपकाएँ. देश की राजनीती को विदेशों से नियत्रित करने की कई थ्योरी पर पहले यकीं नहीं होता था मगर अब देखते हैं तो सही ही लगती हैं. खैर उन पर चर्चा फिर कभी…….
नेताओ ने बेडा गर्क करने का परन ले लिया है
एक पार्टी जिसने सालो तक राज किया, उसने ऐसे कई मुद्दे इसलिये नहीं सुलझाये क्योंकि विवाद में ही इनकी सत्ता कायम रह सकती थी। आपने अच्छा प्रयास किया है।
Bahut khoob. Sanchhipt lekh.