सभी धर्मों में कभी न कभी किसी न किसी बात पर दो फाड़ की नौबत आई लेकिन इसे हर धर्म ने अपनी भौगौलिक और सामाजिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में कभी युद्ध और मारकाट से तो कभी ख़ामोशी से सुलझा लिया और एक निश्चित समय के बाद हर धर्म अपने अंदरूनी झगड़ों पर काबू पाने में कामयाब रहा. इसाई धर्म में कैथोलिक सम्प्रदाय के उदय के बाद उदारवाद के नाम पर प्रोटेस्टेंट समुदाय ने उसे चुनौती दी, हालांकि यह बात अलग है कि कैथोलिक समुदाय को चुनौती देने के आन्दोलन के दौरान प्रोटेस्टेंट समुदाय स्वयं इतना कट्टर बन गया कि आज इसाई धर्म की किसी शाखा में उदारवाद के लिए कोई जगह नहीं बची. इसी प्रकार इस्लाम में कभी शिया सुन्नी तो कभी इस्लामिक साम्राज्य बनाने के नाम पर कई बार मारकाट हो चुकी है और यह थोड़े थोड़े अंतराल के बाद अभी भी बदस्तूर जारी है. बौद्ध धर्म में अहिंसा पर अधिक जोर होने के कारण जब हीनयान और महायान विचारधाराओं का उदय हुआ तो ये दोनों सिद्धांत आपसी सहमति से अलग हो गए और आज भी कायम हैं. एक तरफ जहाँ इन धर्मों ने आपसी असहमति को खुली बातचीत या आपसी टकराव के जरिये सुलझा लिया वहीँ हिन्दू धर्म इनमे से कोई भी रास्ता अपनाने में कामयाब रहा. हिन्दू धर्म में कट्टरवाद बनाम उदारवाद की लड़ाई सदियों से चलती आ रही है, इसमें न तो कभी खुला रक्तपात हुआ न ही कभी खुली चर्चा का माहौल बन पाया इसलिए न केवल यह जख्म आज भी कायम है बल्कि सूचना क्रान्ति के इस दौर में संक्रमण के लिए अधिक खुला है.
बाकी धर्मों में हुए मतभेद और सैद्धांतिक बंटवारे पर एक नजर दौडाएं तो जहाँ इसाई समुदाय में यह संगठन और सिद्धांत का बंटवारा था तो इस्लाम में शिया सुन्नी का बंटवारा बाकायदा इतिहास के घटना क्रम पर आधारित है और बौद्ध धर्म में यह धारणा, शुचिता और विचारधारा के नाम पर था. इसके उलट हिन्दू धर्म में यह बंटवारा संगठन, सिद्धांत, ऐतिहासिक घटनाक्रम, धारणा, शुचिता और विचारधारा सभी पर एक साथ आधारित है. ऐसा नहीं था कि जब पहली बार यह बंटवारा सतह पर आया तब भी इसके इतने ही आयाम थे लेकिन इस बहस को लगातार टालने के कारण इसमें कई और आयाम जुड़ते चले गए और आज तो यह मुद्दा इतना उलझ चुका है कि इस पर कोई एक आम राय बनाना तो दूर बात करना भी ‘धर्मनिरपेक्षता पर खतरे’ के नाम पर रोक दिया जाता है.
करीब चार हजार साल पहले एक हिन्दू समुदाय दुसरे हिन्दू समुदाय के कान में पिघला सीसा इसलिए डाल देता था क्योंकि उस समय वर्ण व्यवस्था थी और शूद्र समुदाय को वेद पढने सुनने की इजाजत नहीं थी. साढ़े तीन सौ साल पहले शिवाजी को बाकायदा घोषणा करनी पड़ी कि उनके राज्य में मंत्री केवल ब्राह्मण होंगे ताकि उनका राज्याभिषेक क्रियाकर्म के अनुसार हो सके. ढाई सौ साल पहले पानीपत की आखिरी लड़ाई, जिसके बाद अंग्रेज भारत पर कब्ज़ा जमाने में कामयाब हुए, हम केवल इसलिए हार गए क्योंकि एक वर्ण का सरदार दूसरे वर्ण से अपनी बड़ाई दिखाने के लिए ऊँची जगह तम्बू लगाने की जिद करने लगा और उनकी आपसी लड़ाई शुरू हो गई. पिछली सदी में गाँधी जी पर इसलिए हमला हुआ क्योंकि वे छुआछूत मिटाने में लगे थे. इस पूरे दौर में हिन्दू धर्म लगातार कई नए नए वर्गों को जन्म देता रहा लेकिन कहीं न कहीं एक एकता का आवरण उनके ऊपर डाल देता था. कभी कभी ऐसा भी हुआ कि सिक्ख धर्म जैसे कुछ पंथ हिन्दू धर्म से अलग अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गए.
आज की बात करें तो एक ओर जहाँ आज भी हिन्दू धर्म में उदारवाद के लिए पूरी जगह है वहीँ कट्टरवाद भी अपनी जड़ें जमाए बैठा है. एक ओर हम पुराने विचारों को गले लगाए बैठे हैं वहीँ नई नई खोजों के लिए भी यहाँ जगह है. एक ओर अंतरजातीय विवाह बढ़ रहे हैं तो ऑनर किलिंग की घटनाएँ भी बदस्तूर जारी हैं. देश के कुछ इलाकों में केवल पहला नाम ही आपकी पहचान बनाने के लिए काफी होता है तो कई इलाकों में हिन्दू नाई तथाकथित नीची जातियों के लोगों की हजामत नहीं बनाते जबकि गैर-हिन्दूओं के बाल काटने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं. आज सूचना क्रांति के इस दौर में यह कट्टरवाद बनाम उदारवाद कि यह बहस और कडवी हो गई है क्योंकि आज जब सूचनाएं बिना बाधा के पहुँचती है तब भी उनको ग्रहण करने में कई तरह की सामजिक, भौगौलिक और मनोवैज्ञानिक धारणाएं बीच में आ जाती हैं. उदाहरण के लिए, पहाड़ी इलाकों, जैसे उत्तराखंड और कश्मीर, के पंडितों में मांस खाना आम बात है, यहाँ तक कि बंगाल में भी मछली का सेवन रोज के खानपान का हिस्सा है वहीँ उत्तर प्रदेश और दक्षिण भारत के कुछ इलाकों में प्याज और लहसुन तक को खाना पाप माना गया है ऐसे में जब प्याज लहसुन न खाने वाले समुदाय के पास मांस खाने वाले समुदाय कि कोई सूचना पहुंचे तो क्या वह उन्हें अधार्मिक और प्रथभ्रष्ट बताने में जरा भी देर लगेगा? नहीं. वैसे आपकी जानकारी के लिए, भारत के ही कुछ इलाकों में हिन्दू समुदाय द्वारा गोमांस का भक्षण भी किया जाता है और यह वहां के समाज में साधारण रूप में स्वीकार्य है.
इस खतरे को बढाने में काफी हद तक मीडिया भी जिम्मेदार है जो अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ की गई किसी भी टिपण्णी को तो जोर शोर से चलाता है वहीँ अल्पसंख्यक समुदाय के नेताओं और शीर्ष व्यक्तियों द्वारा जहर बुझे बयान देने या सामाजिक माहौल बिगाड़ने की घटनाओं को कोई तवज्जो नहीं देता. (यहाँ अल्पसंख्यक समुदाय से मेरा तात्पर्य केवल मुस्लिम समुदाय से नहीं है क्योंकि भारत में मुस्लिम समुदाय के अलावा सिख, ईसाई, जैन, पारसी, बौद्ध इत्यादि समुदाय भी अल्पसंख्यक दायरे में आते हैं. आंकड़ों के आइने में देखें तो कुल अल्पसंख्यक आबादी में से सत्तर प्रतिशत से ज्यादा आबादी केवल मुस्लिम समुदाय की है इसलिए अल्पसंख्यक समुदाय को केंद्र में रख कर होने वाली बहस केवल मुस्लिम समुदाय के आसपास सिमट कर रह जाती है. ऐसे में यह ध्रष्टता मुझसे भी हो जाये तो कोई हैरानी नहीं होगी.) एक तरफ मीडिया हिन्दू संतों और नेताओं के बयानों को बढ़ा चढ़ा कर पेश करता है वहीँ आजम खाम (साहब?) के हिन्दुओं को हरामी (सभ्यता के पैरोकारों से माफ़ी, पर उनके ब्यान में शब्द यही था) कहने या शामली दंगे में स्थानीय विधायक की सक्रिय भागीदारी को बड़ी सुविधा से नजर अंदाज कर देता है. दूसरी तरफ अधिकांश राजनैतिक जमात में भी अल्पसंख्यक समुदाय के गलत को गलत कहने की हिम्मत नहीं होती क्योंकि मामला वोट का है.
इसी बात को आप ऐसे भी देख सकते हैं कि राजनेता या मीडिया वही दिखाते या बोलते हैं जो आप और हम देखना या सुनना चाहते हैं और हिन्दू धर्म आज भी अपनी रीति रिवाज के विराधाभासो के स्तर पर न केवल बंटा हुआ है बल्कि अपने ही धर्म में धार्मिक कहलाने को हीनभावना की नजर से देखा जाता है. दूसरी ओर अन्य किसी भी समुदाय में धर्म से करीबी दिखाना बेहतर समझा जाता है भले ही यह आपको और आपके देश को सदियों पीछे ले जा रहा हो. मदरसों में दी जा रही शिक्षा पर सवाल उठाना बेशक बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसा है लेकिन अधिकाँश मदरसे आखिर पढ़ा क्या रहे हैं? उत्तर है धार्मिक शिक्षा. (जी! मैंने ‘अधिकाँश’ कहा क्योंकि कुछ संस्थान इस भीड़ में अलग खड़े हैं जहाँ शिक्षा का आधुनिक स्वरूप भी देखने को मिलता है लेकिन ये केवल उँगलियों पर गिनने लायक हैं.) अब दूसरी तरफ देखिये, क्या हिन्दू, जैन, पारसी इत्यादि समुदायों में अपनी धार्मिक शिक्षा के लिए कोई संस्थान है? नहीं. आखिर धार्मिक शिक्षा को लेकर इतनी हिचक क्यों?
बात बड़ी साधारण है… अपना देश और अपना परिवार कोई भी व्यक्ति खुद नहीं चुनता लेकिन फिर भी अपने देश और अपने देश को लेकर गर्व और अपने परिवार को लेकर एक जिम्मेदारी का भाव उसमें देखा जाता है. तो फिर यह अपने धर्म के बारे में क्यों नहीं? धर्म आपने चुना भले ही न हो लेकिन यह आपके लिए गर्व और जिम्मेदारी दोनों है. इसलिए चर्चा छिड़े तो भागिए मत, शर्मिंदा मत होइए. आप सहमत हों या असहमत हों, चर्चा में भाग लेना जरूरी है अन्यथा यह जख्म खुला रहेगा और संक्रमण कभी भी हो सकता है. और फिर संक्रमित जख्म को नासूर बनने में देर ही कितनी लगती है?
उम्दा और गम्भीर व् सोचनीय लेख
sahi jazbaat haí sahab.
nice thoughts. everyperson must have read this.
thank you.
This analysis is one sided due its failure to analyse evolution of religion along with civilisation and the state.
Further, the basic of any society is economics; that is how people come into relation with each other, while producing subsistence and then side by side, though may be lagging occasionally, develop super structure, religion being part of it!
Political economy must be base of any analysis for any social superstructure! That will also save the analyst from metaphysical method, which the author has used unknowingly, yet he has explained the present situation, of whose solution is not in present society!
KK Singh Ji!
Agree with you. This article is unable to cover all the aspects of civilization, economics and religious conflicts. I totally agree. Accept it as my incompetence to sum-up all these in one article. but will tray to cover the points you raise in next article.
I did not say incompetence, please ignore if my comment points to that effect!
The progressive forces must unite to resist any form of superstition and ignorance among mass, but same time understand and propagate the basics of these ‘evils’ among the mass!
Defeating fascism(combination of religiosity with corporate’s exploitation) by broadening our progressive and democratic front must be our aim!
“Popular writing” like yours is very important in raising the mass consciousness!
अरे नहीं भाई! आपका कमेन्ट पूरी तरह सार्थक और सकारात्मक था. 🙂
कट्टरवाद और धार्मिक जड़ता के खिलाफ जागरूकता फैलाना जरूरी है, साथ ही साथ इस से लड़ने के लिए एक अलग तरह की व्यवहारिकता की भी जरूरत है. व्यावहारिकता जो कट्टरवाद के खिलाफ काम कर सके लेकिन अगर कट्टरवाद के खिलाफ कट्टर होकर ही लड़ना पड़े तो पीछे न हटे, अन्यथा यह सारी लड़ाई केवल हार जाने के लिए ही लड़ी जायगी क्योंकि मतांधों और अंधभक्तों के समूह की ताकत को अनदेखा करने वाले बुद्धिजीवी इतिहास का हिस्सा केवल पीड़ित के रूप में ही बन पाए.
Your approach is appreciable!
अच्छा लेख है, मेरे लिए इस माने में कि आपके राजनितिक लेखों में सदा ही सन्तुलन कायम करने की गैरजरूरी अखबारी शैली का मैं सदा विरोधी रहा….जब अख़बार में लिखता था तब भी। खैर अच्छा लगा अपने सन्तुलन के बनावटी अलंकृत सौंदर्य से बाहर निकलने का निर्णय लिया। जब सन्तुलन हटता है सच बाहर आता है क्योँकि स्थापित है कि सत्य सन्तुलित नहीं होता। कुछ अति आवशयक महत्व के मुद्दों में मदरसों का मुद्दा अग्रणी बना हुआ हुआ है। बल्कि अन्यर्राष्ट्रीय स्तर इसके विरुद्ध आवाजें हैं तो जाहिर है अनेक स्थानों पर इसने मानवता को प्रताड़ित कियाहै है। कुछ विषयों पर यहाँ असहमति भी है जैसे कि वर्ण आश्रम व्यवस्था में दो समुदाय नहीं चार वर्ण थे इन्हें समुदाय की तरह उल्लिखित करना त्रुटि है। दूसरी ओर ऑनर किलिंग हिन्दू धर्म का मुद्दा नहीं बल्कि सामाजिक मुद्दा है जिसमे कुछ जाति विशेष और क्षेत्र का बड़ा योगदान एवम् प्रभाव रहा है। मुस्लिम वर्ग में भी ऑनर किलिंग खूब देखने में आ रही है। लेकिनकुल ममिला कर लेख अनावश्यक अक्षर षड्यंत्र न होकर (जो कि सन्तुलित लेखों की उद्देश्यहीनता के बारे में मैं कहता हूँ) सहज सन्देश देता है और उद्देश्यपरक तरीके से देता है। बधाई एवम् शुभकामनाएं
बहुत अच्छी आपकी पोस्ट लगी, मैं धार्मिक कट्टरता को बिलकुल नजरअंदाज करता हूँ, चाहे वो किसी भी वर्ग से हो, पहला धर्म सामाजिक, इन्शानियत का होता है, दूसरा धर्म अपने वतन की खातिर होता है, उसके बाद आप धार्मिक चोला पहने वर्ग को रख सकते हैं