महिला पुरुष समानता और लिंग के आधार पर अधिकार जताने की परंपरा को केंद्र में रखकर अभी तक दो ब्लॉग लिख चुका हूँ. पहले ब्लॉग में केवल शारीरिक स्तर पर महिलाओं और पुरुषों में मौजूद भिन्नता को आधार बनाया गया था तो दूसरे ब्लॉग में सामाजिक परिप्रेक्ष्य में महिला अधिकारों को लेकर चल रहे खेल पर कुछ बातें आप सभी पाठकों के सामने रखीं. इसी कड़ी में महिलाओं को हासिल कानूनी अधिकारों की पड़ताल करता यह तीसरा ब्लॉग प्रस्तुत है. क्या वाकई इन कानूनों में महिलाओं के लिए कोई अधिकार है या यह महिलाओं का पीड़ित होने का भ्रम देते हुए केवल पुरुषों पर हमला करने का यंत्र बन गए हैं?
बात चूंकि कानूनी जमीन पर महिला पुरुष समानता को परखने की थी इसलिए इस समय मौजूद विभिन्न कानूनों और कुछ तथाकथित हाई प्रोफाइल मामलों पर मीडिया कवरेज को पढ़ने और समझने की कोशिश की. मीडिया में तैरती महिला असुरक्षा की तस्वीर के पीछे झाँकने का मौका मिला तो कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आये. इस समय महिला सुरक्षा के नाम पर दो मुख्य कानूनी प्रावधान हैं जिनमें से एक है दहेज़ उत्पीडन के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता इंडियन पैनल कोड का सेक्शन 498A तो दूसरा है यौन उत्पीडन के खिलाफ बना क़ानून जिसकी धार दिल्ली में हुए बहुचर्चित निर्भया बलात्कार काण्ड के बाद तेज की गई है. इस ब्लॉग में केवल बलात्कार के खिलाफ कानून और उसके सामाजिक पक्ष पर बात रखना चाहूँगा.
विभिन्न मामलों में यौन उत्पीडन के केसों के बारे में मीडिया रिपोर्टिंग को पढने का मौका मिला तो लगा इनमें मीडिया रिपोर्टिंग हो कहाँ रही है? मीडिया का काम है तथ्यों को जनता के सामने रखना, लेकिन अपने आसपास नजर दौडायेंगे तो 24 घंटे खबर देने और सबसे पहले हर खबर दिखाने की दौड़ में मीडिया अधिकाँश केसों में बिना सच की पड़ताल किये किसी भी सनसनीखेज मामले को आपके सामने परोस देता है. और ऐसे देश में जहाँ महिला सुरक्षा के आसपास अधिकाँश राजनैतिक पार्टियों की विचारधारा घूम रही हो वहां किसी महिला के यौन उत्पीडन से ज्यादा सनसनीखेज और क्या हो सकता है? और आरोप किसी सत्ताधारी पार्टी के नेता पर हो तो सोने पर सुहागा. जी! बदायूं रेप केस की यही रेसिपी थी. वही, जहाँ दो चचेरी बहनों को समाजवादी पार्टी के एक नेता के सम्बन्धी द्वारा बलात्कार के बाद एक ही पेड़ पर मारकर लटका देने का मामला सामने आया था. मीडिया ने अचानक अखिलेश सरकार को इस मुद्दे पर घेरना शुरू किया. बाद में जब सीबीआई जांच हो रही है तो यह मामला ऑनर किलिंग के आसपास घूमता नजर आ रहा है. मतलब मामला बलत्कार का नही है बल्कि लड़कियों के मां-बाप ने ही उन्हें मारकर पेड़ से लटकाया था. (यह अंतिम तथ्य नहीं है, क्योंकि मामला कोर्ट में विचाराधीन है, लेकिन अभी तक की जांच यही कहती है,) लेकिन अब वह मीडिया गायब है जो इसी मामले को 24 घंटे लगातार दिखा रहा था. सबसे पहले खबर दिखाने का दम भरने वाले खबरिया चैनल क्या सही खबर दिखाने की हिम्मत भी रखेंगे?
ऐसा ही एक अन्य मामला रोहतक की उन दो बहनों का था जिसमें उन्होंने बस में दो लड़कों को पीटते हुए उनका विडियो मीडिया को दिया था. मीडिया इन बहादुर बहनों को 24 घंटे का हीरो बना बैठा. और तो और सरकार भी इस खेल में शामिल होकर इन बहनों को इनाम की घोषणा कर बैठी. बाद में सोशल मीडिया के माध्यम से असलियत सामने आने पर सरकार ने तो इनाम कैंसिल कर दिया लेकिन मीडिया इस सच्चाई को दिखाने से मुंह चुराता रहा. अगली बार ऐसी कोई खबर देखें तो ध्यान रखियेगा यह कोई क्षणिक सनसनी भी हो सकती है.
जरा सोचकर देखिये सड़क पर अचानक कोई महिला आप पर खुद को छेड़ने का आरोप लगा दे तो आपके पास बचाव क्या है? कोई यह आरोप क्यों लगाएगा? क्षणिक शोहरत कम बड़ा लालच नहीं होता (शुक्रिया मीडिया चैनलो!) और यह भी संभव है कि आरोप लगाती महिला केवल शिखंडी मात्र हो और उसके पीछे ऐसा कोई योद्धा हो जो आपसे किसी और मुद्दे पर सीधे नहीं उलझ पा रहा हो. छेड़छाड़ और यौन उत्पीडन का आरोप लगाना सबसे आसान है इसलिए सबसे ज्यादा चलाया जाने वाला हथियार भी. गाँवों और शहरों में साधारण सिविल मामले जिनमें जमीन या अन्य किसी विषय को लेकर विवाद चल रहा होता है वहां इस तरह के आरोप और झूठे मुकद्दमे आम हैं. यह अब ऑफिस पोलिटिक्स का हिस्सा भी बन गया है. जी! सच क़ुबूल कीजिये. यकीं नहीं आता तो दिल्ली में साल 2013 में तय हुए बलात्कार के मामलों पर The Hindu अखबार द्वारा किये गए उस अध्ययन पर नजर दौड़ाइए जिसमें लगभग 600 मामलों की पड़ताल की गई थी.
दिल्ली रेप कैपिटल है यह आप सब जानते हैं क्योंकि आंकड़े यही कहते हैं. लेकिन जैसा कि कहा जाता है झूठ दो प्रकार के होते हैं, सफ़ेद झूठ और आंकड़े. दिल्ली को रेप कैपिटल साबित करने वाले आंकड़े आपके पास नैशनल क्राइम रिकोर्ड ब्यूरो (एक सरकारी एजेंसी जो सभी राज्यों और ५३ बड़े शहरों के थानों में दर्ज हुए आपराधिक मामलों के आधार पर देश में बढ़ते या घटते अपराध की रिपोर्ट पेश करता है. यानी इन आंकड़ों में केवल दर्ज मामले आते हैं उनके सच या झूठ होने के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती.) से आते हैं जो केवल यह बताता है कि साल 2013 में दिल्ली के अन्दर 1636 यौन उत्पीडन के मामले विभिन्न थानों में दर्ज हुए. इसके अलावा इन आंकड़ों में यह भी जानकारी मिलती है कि पीड़ित की उम्र क्या थी और क्या उसका आरोपी से कोई सम्बन्ध था या नहीं? बस यहाँ नैशनल क्राइम ब्यूरो के आंकड़ों की सीमा ख़त्म होती है और अचानक महिला अधिकारों की बात करने वाले आपके सामने एक दूसरा आंकड़ा रखते हैं जिसमें यह बताया जाया है कि केवल एक चौथाई मामलों में ही दोषी को सजा हो पाती है. लेकिन सच्चाई इन दोनों आंकड़ों से कहीं दूर खड़ी आप के ऊपर हंस रही होती है.
ऐसी ही सच्चाई सामने आई जब The Hindu अखबार ने 2013 में कोर्ट में आये लगभग 600 मामलों का विश्लेषण किया. चौंकाने वाली बात यह थी कि इन मामलों में लगभग 20 प्रतिशत मामलों में इसलिए ट्रायल नहीं हो पाया क्योंकि ऐसे में “पीडिता” ने मामले के शुरुआत में या तो आरोपी के ऊपर आरोप लगाने की बात झूठ होने को कुबूल कर लिया या फिर वह कोर्ट में हाजिर ही नहीं हुई (बेशक हाजिर न होने वाले मामलों में आप किसी तरह के सामाजिक/पारिवारिक/जबरन दबाव के बारे में सोच सकते हैं लेकिन क्या सभी मामलों में यह संभव है? अभी फैसला मत कीजिये यह केवल आधी तस्वीर है.)
बाकी बचे मामलों में कोर्ट में केस चला और फैसला हुआ तो नतीजे और भी ज्यादा हैरान करने वाले थे. बाकी बचे मामलों में लगभग 40% मामले ऐसे थे जिनमें लड़की और लड़के के बीच प्रेम सम्बन्ध थे. वे घर से भागे और लड़की के मां बाप ने लड़के के ऊपर बलात्कार का आरोप लगा दिया. आश्चर्यजनक रूप से इनमें से अधिकाँश मामलों में लड़की की उम्र लगभग 14 साल लिखवाई गई और मां बाप के अनपढ़ होने की बात कही गई जिन्हें लड़की की असली उम्र का पता नहीं है. यक़ीनन यह कानून की उस कमजोरी का फायदा उठाने की कोशिश में किया गया जिसमें इस उम्र में दोनों पक्षों की मर्जी से बने संबंधों को भी बलात्कार की श्रेणी में रखा गया है. इनमें से बहुत से मामलों में कोर्ट ने लड़के को निर्दोष पाया और लड़के लड़की के संबन्ध को मान्यता दी. अब जबकि सहमति से समबन्ध बनाने की उम्र को 18 साल कर दिया गया है तो ऐसे मामले कितने बढ़ जायेंगे अंदाजा लगाइए.
इन्हीं कोर्ट में तय किये गए मामलों में से लगभग 25% मामले ऐसे थे जिनमें महिला ने पुरुष पर शादी का झांसा देकर संबन्ध बनाने का आरोप लगाया. इन मामलों में दर्ज एफ़.आई.आर. में कुछ बातें आश्चर्यजनक रूप से सामान पाई गई. जैसे इन मामलों में महिला ने कुबूला कि उसके पुरुष से संबन्ध 2 से 14 साल के बीच लगातार रहे, इसके बाद उन्हें पुरुष जब पुरुष से उनके समबन्ध बिगड़ गए तो उन्होंने मुकद्दमा कायम किया. यानि किसी व्यक्ति के साथ इतने लम्बे समय तक संबंध रखने पर जब संबन्ध बिगड़ जायें तो वही हथियार, बलात्कार. एक बात और सामान थी. अधिकाँश मामलों में महिला ने ऍफ़.आई.आर. में यह लिखवाया कि पहली बार जब यह सम्बन्ध बनाये गए तो पुरुष ने महिला की सहमति के बिना ऐसा किया. उसके बाद पुरुष ने महिला को समझाया और शादी का वादा किया.इसके बाद लम्बे अंतराल तक समबन्ध सहमति से बने और आश्चर्यजनक रूप से बिना सहमति के समबन्ध बनाने का मामला फिर दोहराया गया. यह बिना सहमति के संबंध बनाने का काम ठीक उसके एक या दो दिन पहले हुआ जब यह एफ.आई.आर. लिखवाई गई. यानी पहली और आखिरी बार समबन्ध जबरदस्ती बने बाकि समय सहमति से. लगभग सभी मामलों में यह संभव है या यह केवल कानूनी प्रावधानों का अपने पक्ष में इस्तेमाल की कोशिश है?
बाकि बचे मामले असलियत में यौन उत्पीडन के थे लेकिन उनमें से भी लगभग आधे मामले 14 साल के आसपास की लड़कियों को लेकर थे जिनमें मुकदमा पीडिता के माँ-बाप ने कराया और पुरुष साथी पर नशे का इस्तेमाल करके समबन्ध बनाने का आरोप लगाया गया. क्या यहाँ भी वही पैटर्न आप देख पा रहे हैं? लड़की का सहमति से संबन्ध बनाना, परिवार को पता लगना, बलात्कार का केस दर्ज हो जाना. इनमे से बहुत से मामलों में तो खुद लड़कियों ने कोर्ट में कहा कि यह मामला दर्ज कराने के लिए उन पर परिवार का दबाव था.
ऐसा नहीं है कि दिल्ली में दर्ज यौन उत्पीडन के सभी मामले फर्जी थे. लेकिन अधिकाँश मामलों में कोर्ट ने पाया कि आरोप दुर्भावना से प्रेरित होकर लगाये गए हैं और केस पूरी तरह गलत है. ऐसे में २७% मामलों में सजा होना क्या कहीं से भी असहज लगता है?
निश्चित तौर पर किसी भी सभी समाज में यौन उत्पीडन जैसे अपराध के खिलाफ एक आम भावना होनी चाहिए लेकिन क्या होगा अगर यह आम भावना किसी तरह के पूर्वाग्रह का रूप ले ले. यही हो रहा है. अगली बार कोई ऐसी खबर दिखे तो उसके पीछे झाँकने की कोशिश कीजिये. बलात्कार केवल महिला का नहीं पुरुष का भी होता है जब आप महिला के नाम को छुपाते हैं लेकिन पुरुष के नाम को चीख चीख कर बताते हैं. हाँ, यह बलात्कार दैहिक नहीं बल्कि सामाजिक और मानसिक होता है इसलिए इसके खिलाफ किसी अदालत में मामला दर्ज नहीं हो सकता लेकिन इसमें दोषी संसद से लेकर मीडिया तक सब हैं. आप भी, जो केवल सनसनी से भरी ख़बरें देखना चाहते हैं सच्चाई नहीं.
महिला अधिकारों की पैरवी कीजिये लेकिन पुरुषों को शिकार बनाकर नहीं. पुरुष भी उतना ही असुरक्षित है जितनी महिलायें. ख़ास तौर पर ऐसे माहौल में पुरुष अधिक असुरक्षित हो जाता है जब उस पर लगाये गए किसी भी आरोप को सच मान लेने की प्रवृत्ति समाज में बन गई हो. आँखें खुली रखिये, खबरों पर उतना भरोसा मत जताइए जितना आप जताते रहे हैं, केस झूठा भी हो सकता है, दोषी महिला भी हो सकती है. दिल्ली में ट्रायल हुए 600 में से लगभग तीन चौथाई मामले तो यही बताते हैं. यक़ीनन बलात्कार जैसे मामलों में मृत्यु दंड भी कम है लेकिन झूठे आरोप लगाने के मामलों में? महिला पाठकों से कहना चाहता हूँ आपके असली दुश्मन पुरुष नहीं है बल्कि वे महिलायें है जो ऐसे कानूनों का गलत इस्तेमाल करती हैं.
आप समग्र आयाम विचर सकते थे लेकिन आपने पक्ष रखना उचित समझा। खैर जो लिखा है अच्छा लिखा है……विशेषकर उद्देश्य को समर्पित है।
अपेक्षा करता हूँ आप मेरे शब्दों का वही अर्थ समझेंगे जो मैंने लिखा नहीं लेकिन आप तक पहुंचाना चाहा है:) …….संवाद की गहराइयों में एक दूसरे को छू सकने का कुछ तो लाभ है……:):)
R/Sir,
I read column it gives real picture of law enforcement system including relatives of alleged victims, investigating agency, personal thinking and judicial mindset of trail court judge and fairness of prosecution and defence. Law of the land is nothing but a waste paper until it is adopted by public in general in it’s real spirit with honesty. To sum up in brief I say all it depends upon the credible character of common people in the particular era. Because all the things which are happening around us are nothing but a reflection of representation of our own society.