राजनैतिक आतंक की छाँव में राहुल गाँधी होने का मतलब

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राहुल गांधी के भाषणों को लगातार सुनिए तो देश के बारे में कम गांधी परिवार या राहुल गांधी, एक व्यक्ति, के बारे में अधिक कहते सुने देते हैं. कभी बचपन के डरावने अनुभव तो कभी मां के आधी रात कमरे में आकर रोने की बातें. राजस्थान भाषण भी इस से कुछ अलग नहीं था. या शायद था. क्योंकि ऐसा पहली बार हुआ कि देश के सबसे सुरक्षित और मजबूत कहे जाने वाले परिवार के किसी सदस्य ने सार्वजनिक मंच से परिवार के सदस्यों की हत्या के बाद का अनुभव और स्वयं अपनी हत्या का डर जाहिर किया हो.

गैर कांग्रेसी इसे राजनैतिक चश्मे से देखना पसंद करेंगे तो कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए यह भक्तिभाव जाहिर करने का एक और मौका होगा. यकीनन इन सब के बीच दादी और पिता की हत्या के बाद डरे सहमे जवान बालक की मानसिकता तक शायद ही कोई पहुँच पायेगा जो सुरक्षा के साए में भी असुरक्षित महसूस करता है. देखा जाए तो जवाहर लाल नेहरु को छोड़ कर पिछली तीन पीढ़ियों में किसी की भी मृत्यु सामान्य कारणों से नहीं हुई. कहने वाले इसे शहादत भी कहते हैं लेकिन शहादत से अधिक यह उस तंत्र की पोल खोलता है जो देश की सुरक्षा का दम भरता है और चीरफाड़ करेंगे तो एक बार फिर निशाने पर वही आते हैं जो खुद को पीड़ित कहते हैं. बात चाहे प्रत्यक्ष रूप से सत्ता सँभालते राजीव गाँधी और इंदिरा गांधी की हो या अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता की चाभी और रिमोट थामे सोनिया-राहुल की.

राहुल गांधी के बयान के राजनैतिक निहितार्थ भी हैं, होने भी चाहिए. सदियों तक राजों-रजवाड़ों की परम्परा का पालन करने वाला यह देश अभी भी उस मानसिकता से शायद पूरी तरह बाहर नहीं निकला अन्यथा कोई कारण नहीं था कि दादी और पिता को याद करने वाले एक बयान पर बहस करने के लिए टीवी चैनलों और अख़बारों पर होड़ लग गई. अब इसे ऐसे समझिये कि यदि इस बयान पर टीवी चैनलों के एसी कमरों में बैठे एंकर इतने भावुक हो सकते हैं तो देश के साधारण आदमी का क्या हाल होगा जो देश को आजाद होने का क्रेडिट इसी गांधी परिवार को देता रहा है. (एक सर्वे के अनुसार इस देश के ८.९% लोग अभी तक नहीं जानते कि इंदिरा गांधी की हत्या हो चुकी है, उनके लिए अभी भी कांग्रेस को वोट देने का मतलब इंदिरा मैय्या को वोट देना ही है.) तो विरासत का हवाला देकर वोट मांगना उतनी बुरी बात नहीं जितनी इस पर प्रतिक्रिया आ जाती है क्योंकि भारत जैसे देश में यह हर बड़ा नेता और हर बड़ी पार्टी करती रही है.

बात व्यक्तिगत तौर पर राहुल गाँधी की करें तो वे डरे-सहमे-झिझकते-शर्माते युवराज की छवि में कैद हो चुके हैं और लाख कोशिशों के बावजूद उस से आजाद नहीं हो पा रहे हैं (दाढ़ी बढ़ाना, बाहें चढ़ाना, स्टेज से घोषणा पत्र और प्रेस के सामने बिल फाड़ना इस छवि से आजाद होने की कशमकश का हिस्सा हो सकता है). इस के लिए उनकी चाटुकार मंडली भी काफी हद तक जिम्मेदार है जो उनके हर सही गलत का विश्लेषण राहुल के नजरिये से करती है परन्तु देश ऐसा नहीं है. बहुसंख्यक तबका राहुल गांधी के बयान को राहुल गांधी बनकर नहीं सुनता है और यही समस्या है क्योंकि निर्मम राजनैतिक विश्लेषण में राहुल गांधी का बयान कहीं ठहरता नहीं है. लेकिन इस बात को नजरअंदाज करना भी मुश्किल है कि यह बयान राजनैतिक तौर पर भले ही महत्वपूर्ण ना हो लेकिन राजनीति में इसका अलग महत्त्व है. क्योंकि ऐसे दौर में जब सत्ता हर ओर से निशाने पर है और सत्ता के परोक्ष नियंत्रणकर्ता के तौर पर गांधी परिवार इस गुस्से का केंद्र हैं तो राजनीति में भावनाओं का छौंक ही कोई सहारा यहाँ दे सकता है.

और किसी मनोविश्लेषक से पूछेंगे तो कहेगा यह अचेतन मन का वह डर बोल रहा है जिसे यह लगता है कि २०१४ की लड़ाई अस्तित्व की लड़ाई है क्योंकि इस बार सत्ता परिवर्तन का मतलब गांधी परिवार के लिए सुख-सुविधाओं, सुरक्षा-व्यवस्था और रहन-सहन के तौर तरीकों में परिवर्तन भी होगा. मोदी इसका सीधा संकेत गांधी परिवार और खासकर गैर-राजनैतिक माने जाने वाले रोबर्ट वाड्रा को निशाने पर लेकर दे चुके हैं. यह उस अघोषित संधि के उलट था जिसके तहत अब तक राजनैतिक दलों के नेताओं के परिवारगणों को निशाने पर नहीं लिया जाता था. तो क्या राहुल गांधी यह मान रहे हैं कि २०१४ में सत्ता ना आई तो गांधी परिवार के आखिरी वंशज के तौर पर खतरा उनकी जान पर भी बढेगा.

About Satish Sharma 44 Articles
Practising CA. Independent columnist in News Papers. Worked as an editor in Awaz Aapki, an independent media. Taken part in Anna Andolan. Currently living in Roorkee, Uttarakhand.

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