लोकतंत्र के चार सतम्भ बताये जाते हैं. पहला विधायिका यानी वह तंत्र जिन्हें आम वोटर चुनता है. दूसरा कार्यपालिका यानी सरकारी अफसर और कर्मचारी जिनका काम सरकारी कार्यों को लागू करना है. तीसरा न्यायपालिका जो पहले दो से गलती होने पर या आम नागरिक द्वारा कानून तोड़ने पर उसे दंड देती है. चौथा और अंतिम स्तम्भ पत्रकारिता है. पहले तीनों के फेल हो जाने पर चौथे स्तम्भ की जिम्मेदारी बढ़ जाती है क्योंकि वह किसी को भी कटघरे में खड़ा करने की ताकत रखता है. चौथे स्तम्भ की जिम्मेदारी इसलिए भी बढ़ जाती है यह किसी कानून से नहीं बंधा है. मीडिया को कड़ी नजर से देखना इसलिए भी जरुरी है कि इसमें काम करने वाले लोग जनता के बीच रहते हैं, बुद्धिजीवी होते हैं. लेकिन मौजूदा हालात में जो ख़बरें मीडिया हमें परोस रहा है वह क्या है? ४०% टैबलोयड, ४०% पीत पत्रकारिता (जिसे छोटे शहरों में लिफाफे की पत्रकारिता भी कहा जाता है), १०% पेड न्यूज, ९.५ % प्रोपेगंडा और .५% खबर (जो अब धीरे धीरे लुप्त होती जा रही है.)
पत्रकार किसी न किसी पार्टी या विचारधरा से जुड़ गए हैं और राज्यसभा की सीटें उनके लिए आरक्षित हैं ऐसे में बंद कमरों में बनती ख़बरों में असली पत्रकारिता दम तोड़ रही है. बेरोजगारी, मूलभूत ढांचा विस्तार, किसान-मजदूर की समस्याएं, और सरकारी योजनाओं का कार्यान्वयन अब खबर नहीं है. यहाँ कुछ भी जिंदगी जैसा नहीं ग्रे नहीं है बस जो है वह या तो काला है या सफ़ेद. हर न्यूज चैनल का खबर में एक पक्ष है. जैसे ख़बरें न हों रियल्टी शो हो जिसमे रियल्टी पर प्रतिबन्ध हो. आखिर इसके पीछे क्या कारण है? चलिए कुछ सवालों पर नजर डालते हैं…….
- मीडिया घराने किसके नियंत्रण में हैं (प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष)? उनके विभिन्न राजनैतिक पार्टियों और व्यापारिक घरानों से क्या हित जुड़े हैं?
- व्यापार बन चुके इन मीडिया घरानों को पैसा कहाँ से मिलता है? सरकारी विज्ञापन, कमर्शियल विज्ञापन और पेड न्यूज.
- मशहूर पत्रकार क्या करना चाहते हैं? उनके जीवन का उद्देश्य क्या है?
- यदि किसी पत्रकार का कोई गॉडफादर या वरदहस्त नहीं है तो उसकी दशा क्या है?
मीडिया से जुड़े लोगों की सफलता का पैमाना क्या है?
- तनख्वाह– जितनी मोटी, उतनी बेहतर.
- व्यवस्था में जगह – राष्ट्रीय सलाहकार परिषद्, साहित्य अकादमी, सेंसर बोर्ड इत्यादि.
- विचारधारात्मक गुटबाजी– विभिन पार्टियों और विचारधारों से जुड़ाव और उसका ख़बरों पर असर लाजिमी है.
- करियर– आगे बढ़ने का आसान रास्ता ‘उसके साथ हो जाओ जो आगे बढ़ चुका हो’.
- पहचान– नाम/चेहरा जनता की नजर में बना रहे.
- इज्जत– विभिन्न पुरूस्कार जिन्हें नियंत्रित किया जाता है.
- प्रभाव –सरकारी हलकों में पैठ (नीरा राडिया टेप काण्ड).
- काम करवाने की क्षमता– राजनैतिक, व्यापारिक, अंदरूनी जानकारी, सिफारिशें, पदोन्नति.
- सुविधाएं– स्पेशल निमंत्रण, सब्सिडी की बेहतरीन शराब, विदेशी दौरे.
इसके बदले में क्या करना होगा?
- वफादारी– उनके लिए जो आपको फायदा देते हैं.
- चापलूसी – उनकी जो सत्ता के केंद्र में हों या हो सकते हों.
- स्वामिभक्ति –ताकि मीडिया में बने रहें.
- आका के अधिक से अधिक करीब रहना.
- दूसरे चापलूसों से प्रतिस्पर्धा.
- आका की जरूरतों की जानकारी रखना.
- मंदबुद्धि राजनेताओं/आकाओं को वह करने की सलाह देना जो वह खुद नहीं सोच सकते.
- आका की जरूरतों को अंगीकार करना.
- नैतिक मूल्यों को आका कि सुविधा से बदल लेना.
- मिलने वाले फायदे नजदीकी और उपयोगिता पर आधारित होते हैं अतः परिवारों के करीब बने रहना.
उपरोक्त बातें लागू होती हैं तो मीडिया घरानों का असली उद्देश्य उन नेताओं को खुश करना भर रहा जाता है जिनके आका सत्ता में हैं या सत्ता में आ सकते हैं. हालाकिं ऐसा नहीं है कि यह भारत में ही होता है यूरोप अमेरिका में यह बीमारी अधिक गहरी है. एक बानगी के लिए आप टीवी सीरिज “Yes, Minister” को देख सकते हैं या इसका सीक्वेल “Yes, Prime Minister”. किन्हीं दो ब्यूरोक्रेट्स की लिखी किताब भी पढ़ सकते हैं. यह आपको बतायेगा कि सत्ता के गलियारों में किस तरह सौदे होते हैं. यह आपको यह भी बतायेगा कि किस तरह इंदिरा गाँधी ने मारग्रेट थेचर के नक्श-ए-कदम पर चलकर अपने आसपास चापलूसों की फ़ौज खड़ी की और कार्यपालिका को विधायिका के क़दमों में ला गिराया.
और गहरे में उतरेंगे तो देख पायेंगे कि मीडिया किस तरह मीडियम और अंततः मीडिएटर में बदल गया, जिसका काम केवल दो पक्षों में मध्यस्थता करना होता है. जरा गौर से देखेंगे तो आपको यह भी पता लगेगा कि कैसे कुछ समय पहले तक प्रधानमन्त्री के विदेश दौरों पर औसतन सौ पत्रकार उनके साथ जाते थे और वह भी सरकारी खर्चे पर. खुशकिस्मती से पिछले दो सालों से जनता के पैसे पर चापलूसों को पालने का यह कार्यक्रम बंद है (अब केवल एएनआई और दूरदर्शन के ३ या ४ पत्रकार साथ जाते हैं.) और शायद इसीलिए प्रधानमन्त्री की विदेश यात्रा का औसत खर्च जो मनमोहन सिंह के समय ९.२३ करोड़ था अब घटकर २.२५ करोड़ प्रति विदेश यात्रा रह गया है. और शायद यही कारण है कि मीडिया पहली बार सरकार के खिलाफ खड़ा दिख रहा है.
निष्कर्ष:
अब आप इन बिखरे हुए बिन्दुओं को मिलाएं और जितनी भयानक तस्वीर सामने आएगी आप सच्चाई के उतना ही करीब हैं. जी हाँ, यही सच्चाई है. ऐसे समय में जब मीडिया घराने अपनी जिम्मेदारी भूल चुके हैं आपकी जिम्मेदारी है कि जो असली खबर है उसे लोगों तक पहुंचाएं. स्वतन्त्र और निष्पक्ष ऑनलाइन मीडिया पोर्टल्स या अपने ब्लॉग के माध्यम से सम्वाद करें. दायरा भले ही छोटा होगा लेकिन लहरें तो बनेंगी. प्रयास बेकार नहीं जाएगा. तो लगे रहिये क्योंकि जब सब कुछ बिकने के लिए तैयार है तो आम नागरिक बाजार से बाहर खड़ा रहकर ही मांग को प्रभावित कर सकता है…. अपना मीडिया खुद बनें…..
tabhi media gas subsidi ghotaalon per baat nahi karta ,kaala dhan se dhan banane ki kala kaise kisi ketli ne sikhi us per baat nahi karta, or na hi baat karta toilet me safar karte rail yatri,kitne paise me bik rahe sulabh shochalayaki, ganga ki safai ki baat karne vaalo ke aashram se ganga me girti gutter,station per 15rs ki bottle 20rs ki,na ret maafiya ki patrol pump per thoda milte patrol ki ,na hi mrp se jyada paiso me milti sharab ke theko me bikti shraab ki ,gas cylender ke liye line me khade upbhogta jo govt ki fix kimt se bhi jyada kimat per gas pura din barbaad kar laata h , ha media neta ki photo kattaar laga kase khichti h y hum har roj dekh te h.. anth me…. aankh khuli to maa ka daaman naakhuno se trast mila ,
jis ko jimmedaari di thi ghar bharne me vyast mila….
bus y hi dekhta aa rahe h.
vijay kumar…
Very nice satish ji
अति सुन्दर तरीके से आपने इस पळपात वाली media के कामों का वर्णन किया है
यही हो रहा है media घरानों में
बहुत सही लिखा आपने आज के समय में मिडिया सबसे सड़ा हुआ अंग बन चूका है और फुभाग्यदुर्भाग्य से सभी स्तम्भ एक दूसरे के पूरक बन गए है जनता कोसे किसी को कोई सरोकार नही है