मोदी सरकार, कितनी असरदार?

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हम भारतीय मूल रूप से चर्चा, आलोचना, समाज सुधार इत्यादि बातों में समय बिताना पसंद भी करते हैं और यह करते हुए गौरवान्वित भी महसूस करते हैं, बशर्ते यह आलोचना और सुधरने की प्रक्रिया व्यक्तिगत रूप से हमारे ऊपर लागू न होती हो. चौबीसों घंटे के मीडिया चैनल इस मानवीय कमजोरी की आग में ईंधन का सतत प्रवाह करने को संकल्पबद्ध है, भले ही यह आग उनकी अपनी विश्वसनीयता पर भी प्रश्न चिन्ह ही क्यों न लगाती हो. इस प्रश्न चिन्ह के सैकड़ों पुख्ता सबूत और प्रकरण आपको जरा सी मेहनत से मिल जायेंगे, ताजा उदाहरण बदायूं केस है जहाँ मीडिया ने इस मामले में न केवल अखिलेश सरकार को कठघरे में खड़ा किया बल्कि उत्तर प्रदेश को बलात्कार प्रदेश बताने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन जब बात सीबीआई जांच तक आई तो मामला ऑनर किलिंग की थ्योरी पर जाकर सिमटने लगा. (मैं यहाँ न तो अखिलेश सरकार की तारीफ कर रहा हूँ न ही ऑनर किलिंग को रेप से बेहतर स्थिति बताने की कोशिश है, मुद्दा मीडिया द्वारा बिना जांच किये उतावलेपन में अधपकी खबरें चलाना है जिसमे सरकार या उसके नुमाइंदे निशाने पर हों.) ज़रा पीछे मुडकर देखें तो पूरे बयान में से एक छोटा सा हिस्सा प्रसारित कर ‘टंच माल’ को राष्ट्रीय चर्चा का मुद्दा बना देना (जहाँ दिग्विजय सिंह कांग्रेस सांसद मीनाक्षी नटराजन की तारीफ करते हुए उन्हें सौ प्रतिशत खरा इन्सान कह रहे थे), मनोहर पर्रीकर के ताजा बयान पर उठे विवाद समेत सैकड़ों उदाहरण मिल जायेंगे जिनकी चर्चा तो घंटों, दिनों महीनों और शायद सदियों तक भी संभव है, लेकिन समाधान की गुंजाइश केवल मीडिया और हमारे अपने अन्दर से है.

मीडिया और समाज की इसी कमजोरी का शिकार कुछ दिनों पहले तक जनभावनाओं और जनाकान्क्षाओं का प्रतीक बनी मोदी सरकार भी बन रही है. सरकार बने अभी जुम्मा जुम्मा चार दिन भी नहीं हुए हैं कि सवाल उन मामलों को लेकर उठने लगे हैं जिनका समाधान कई दशकों में जाकर होता है. मीडिया के एक मित्र से बात हुई तो उनकी तरफ से तर्क यह गढ़ा गया कि मुद्दों को एक समय-सीमा में हल करने का दबाव ही लोकतंत्र में सरकारों को काम पर लगाए रखता है. लेकिन जब सवाल यह किया गया कि चौतरफा आलोचना के दबाव में अगर सरकार का आधा वक्त सफाइयां देने और अपना पक्ष रखने में ही गुजरने लगे तो काम कब होगा, वे महानुभाव खामोश हो गए. खैर! हम यहाँ बात एक एक मुद्दे पर करेंगे जिनको लेकर पिछले कुछ दिनों में मोदी सरकार आलोचना के केंद्र में रही.

महंगाई का मुद्दा चिरजीवंत और चिरनूतन है. सरकार कोई भी हो, देश और काल कोई भी हो, सार्वजनिक चर्चा के अवसर उपलब्ध हैं तो महंगाई हमेशा एक मुद्दा रही है. महंगाई के मानक और इसके घटक अनंत है लेकिन फिर भी लोकतंत्र के ज्ञात इतिहास में कोई ऐसी सरकार याद नहीं आती जिसने महंगाई को कम करने में सफलता पाई हो. (यहाँ महंगाई का अर्थ वही है जो हम में से अधिकतर लोग आसानी से समझते हैं, मूल्यवृद्धि) आलू प्याज के दाम बढे और सरकार निशाने पर, जबकि यह हर साल होता है. इन्ही एक दो महीनों में इन खाद्य पदार्थों के दाम अक्सर बढ़ते रहे हैं. इसके पीछे कारण मौसमी प्रभाव, जमाखोरी, सरकार के स्तर पर कमजोर खाद्यान भंडारण और वितरण प्रबंधन शामिल है. लेकिन अचानक होने वाली यह मूल्यवृद्धि कोई नई बात नहीं है. इस बार केवल एक बात नई थी, सरकार की अतिसक्रियता. जैसे ही सरकार को मानसून की कमजोरी और संभावित मगर अप्रत्याशित मूल्यवृद्धि की भनक लगी, प्रधानमंत्री कार्यालय हरकत में आया और सम्बन्धी मंत्रियों और अधिकारियों की एक बैठक बुलाकर सूखे और खाद्यान्न संकट से निपटने के उपाय मांगे गए. प्रस्ताव पहुंचे और अगले दो घंटे में उन पर अमल शुरू हो गया. यही नहीं, उसके पंद्रह दिन बाद एक दूसरी बैठक भी बुलाई गई जिसमे अब तक हुए उपायों और कामों पर चर्चा और समीक्षा की गई. इतनी सक्रियता, वह भी उच्च स्तर पर, मगर मीडिया के कैमरों से कहीं दूर. अभी तो सरकारी अधिकारी भी इस कार्यशैली की आदत नहीं दाल पा रहे हैं कि महीनों में होने वाले निर्णय घंटों में होने लगें. प्याज संकट गहाराता इसके पहले ही वित्त मंत्री अरुण जेटली भी सक्रिय हुए और सम्बंधित अधिकारियों के साथ बैठक कर आवश्यक वस्तुओं के निर्यात पर रोक लगाने सम्बन्धी नियमों में तत्काल संशोधन कर दिया गया. हालांकि केवल इतना पर्याप्त नहीं है खाद्य पदार्थों की महंगाई रोकने के लिए कृषि नीति, भंडारण नीति, वितरण नीति में संशोधन के साथ राज्यों का सहयोग भी चाहिए लेकिन फिर भी असर दिखने लगा है आप भी आलू-प्याज खरीदने जायेंगे तो महसूस करेंगे. पहले जहाँ आलू प्याज के बढ़ते दामों की चर्चा कई कई हफ़्तों तक चलती थी, वहीँ इस बार यह मुद्दा मीडिया चैनलों पर केवल कुछ दिन का मेहमान बनकर रह गया.

यही हालात रेल किरायों और पेट्रोल डीजल में मूल्य वृद्धि के सन्दर्भ में है. एक ओर तो हम बुलेट ट्रेन चलाने के सपने  देखते हैं दूसरी ओर रेल किराए के नाम पर रेलवे को कुछ देना नहीं चाहते. याद रखें, बुलेट ट्रेन बुरादे पर नहीं चल सकती. भारतीय रेल को महंगा कहने वालों को सीएमके रिपोर्ट २०१२ पढनी चाहिए जिसके अनुसार रेल किराए के मामले में भारत केवल छः देशों से ऊपर है और यूरोप देशों में तो भारत के मुकाबले २० गुना अधिक तक किराया वसूला जा रहा है, यही उनकी ओर से प्रदान की जाने वाली बेहतरीन सेवा के लिए समुचित संसाधन भी उपलब्ध कराता है. रेलवे को योजनाओं के लिए धन चाहिए. पेट्रोल डीजल मूल्य वृद्धि पर भी लगभग यही तर्क मैं दोबारा नहीं रखना चाहूँगा लेकिन इतना जरूर कहना चाहूँगा कि इराक वार इत्यादि बहुत से बातें मोदी सरकार के बस में भी नहीं हैं.

यहाँ यह भी समझना होगा कि सामान्य वस्तुओं में मूल्य वृद्धि एक साधारण आर्थिक क्रिया है जो लगातार चलती रहती है. किसी भी सरकार की कुशलता को नापने का पैमाना उसका मूल्य वृद्धि पर नियंत्रण कर पाना नहीं होना चाहिए, बल्कि सरकार की कुशलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह अपनी अर्थव्यवस्था में नौकरी के कितने अवसर (सरकारी और गैर-सरकारी दोनों) उपलब्ध करा पाती है? मूल्यवृद्धि रोकने को पैमाना बनाना बिलकुल ऐसा ही होगा जैसे हम किसी चालक की योग्यता इस बात से पता करें कि वह वाहन को कितनी देर तक एक जगह पर रोक कर रख सकता है. यह एक हल्का उदाहरण है मगर बात केवल प्रतीक की है. साथ ही यह भी ध्यान रखें कि अर्थव्यवस्था का कायापलट कोई एक दिन या कुछ महीनों में होने वाला काम नहीं है, इसके लिए हमें धैर्य रखना होगा.

सरकारी खजाने के खाली होने के तर्क के विरोध में खड़े लोग यह कह सकते हैं कि खजाना ही भरना है तो देश के प्राकृतिक संसाधनों और पेट्रोल-डीजल मूल्य वृद्धि के मुख्य कारक बने चौपहिया वाहनों पर टैक्स (एक्साइज और रोड) बढ़ाकर इस खजाने की पूर्ति की जा सकती है यह गरीब लोगों के हित में भी होगा और पर्यावरण के हित में भी, क्योंकि इससे कम वाहन बिकेंगे. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि किसी भी देश में कार्पोरेट क्षेत्र को झटका देने वाला यह फैसला असंभव सा है और इसे असंभव बनाता है सत्ता का चरित्र जिसका शिकार हर सरकार बनती है और मोदी सरकार भी अपवाद नहीं है.

आखिर में केवल यही कहना चाहूँगा कि किसी भी देश की हुकुमत दृश्य और नियंत्रित ताकतों से ज्यादा अदृश्य और अनियंत्रित ताकतों पर निर्भर करती है और यह सिद्धांत भारत पर भी लागू होता है. अच्छे दिनों के इन्तजार में तीन दशक बाद स्पष्ट जनादेश देने वाले लोगों को शायद अभी कुछ और बुरे दिन देखने पड़ें. कमजोर मानसून (फलस्वरूप कमजोर खेती, जल संकट, बिजली संकट), अधपका बजट, खाड़ी संकट और तिस पर चौबीसों घंटे की बेपाया आलोचना का दबाव ऐसा कर सकता है. याद रखें, दिल्ली सदन में बैठे सर्वोच्च व्यक्ति के हाथों में जादू की छड़ी नहीं है (यह जुमला यूपीए-2 से उठाया लग सकता है) और सरकार या उसका मुखिया कोई भी हो वह न तो बारिश करवा सकता है न ही इराक की लड़ाई को रोक सकता है. इसलिए इन्तजार रखें, भरोसा बनाये रखें क्योंकि अभी कम से कम एक साल बाद ही आज लिए गए फैसलों का असर दिखेगा और कुछ का असर दिखने में तो शायद इससे कहीं अधिक वक्त लग जाए.

About Satish Sharma 44 Articles
Practising CA. Independent columnist in News Papers. Worked as an editor in Awaz Aapki, an independent media. Taken part in Anna Andolan. Currently living in Roorkee, Uttarakhand.

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