पिछले ब्लॉग कोई ये कैसे बताये कि वो तनहा क्यों है? को लगभग एक माह बीत चुका है. (यह ब्लॉग उसी दिए गए लिंक की अगली कड़ी मात्र है, इसलिए आपसे निवेदन है कि दिए गए लिंक को जरुर पढ़ें.) कई मित्रों ने ब्लॉग पर कमेंट में प्रतिक्रिया दी तो बहुत से साथियों ने फेसबुक और व्हाट्सऐप पर मैसेज किये. तारीफ़ करना उनका सामजिक कर्त्तव्य था जिसे कई प्रतिक्रियाओं में निभाया भी गया लेकिन बेहतर प्रतिक्रयाएं वे थी जिनमे पिछले लेख की निर्मम आलोचना की गई या कई ऐसी अवधारणाओं पर सवाल उठाये गए जो पिछले ब्लॉग का आधार थीं. ऐसी प्रतिक्रियाएं दूसरों से आगे इस मायने में भी निकल जाती है क्योंकि इनसे आगे की विचारयात्रा का रास्ता खुलता है.
पिछले ब्लॉग पर आई प्रतिक्रियाओं को अगले कुछ लेखों में उठाने की कोशिश करूँगा.
एक दोस्त ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा है कि यदि किसी भी व्यक्ति के जन्म के समय ही उसकी शारीरिक और मानसिक संरचना/क्षमता तय हो जाती है साथ ही उसकी फिजिकल एनर्जी को तय करने वाले अधिकतर मानक निर्धारित हो जाते हैं तो यह भी साबित होता है कि उस व्यक्ति विशेष के मित्र/शत्रु और विभिन्न परिस्थितियों में उसकी प्रतिक्रिया और साथ ही उसके जीवन के अधिकांश पहलू भी लगभग पूर्वनिर्धारित होते हैं. तो क्या एक साधारण व्यक्ति अपनी पूरी जिन्दगी को अपने जन्म के समय हुई घटनाओं की प्रतिक्रिया के तौर पर नहीं जीता? क्या इस का अर्थ यह निकाला जा सकता है कि सब पूर्व निर्धारित है और इंसान केवल खिलौना मात्र है जिसके पास किसी भी प्रकार के बदलाव का कोई रास्ता नहीं है?
नहीं. जैसा कि मैंने पिछले ब्लॉग में लिखा था कि प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में होने वाले हार्मोनल स्त्राव से इस बात का निर्धारण होता है कि वह किस परिस्थिति में किस प्रकार से प्रतिक्रिया देगा? लेकिन साथ ही इस सिद्धांत की तह में जाने पर हम कह सकते हैं कि यदि हम हार्मोनल स्त्राव को नियंत्रित कर सकें तो प्रतिक्रिया बदली जा सकती है और प्रतिक्रिया बदलने पर बाकी बदलाव अवश्यम्भावी हैं क्योंकि इंसानी जीवन केवल क्रिया-प्रतिक्रिया का खेल मात्र है.
हार्मोनल स्त्राव को समझने के लिए दिमाग के काम करने के तंत्र को समझना जरूरी है. इंसानी दिमाग पूरे समय (सोते समय भी) शरीर से लगातार संकेत प्राप्त करता है और उसी के आधार पर शरीर को दिशा-निर्देश देता है. इन्ही दिशा निर्देशों से हमारे क्रियाकलाप/मनःस्थिति(साधारण शब्दों में इसे मूड कह सकते हैं) तय होते हैं.
उदाहरण के तौर पर मान लीजिये कि कोई व्यक्ति मैदान में दौड़ रहा है और दौड़ते दौड़ते वह पूरी तरह थक चुका है. अब वह जॉगिंग ख़त्म करके घर जाने की तैयारी में है. अगर आप उस से एक किलोमीटर और दौड़ने को कहेंगे तो क्या वह मानेगा? नहीं. क्योंकि उसका शरीर दिमाग को अपने थकने का सिग्नल भेज चुका है इसलिए दिमाग और दौड़ने से इनकार कर देगा. लेकिन यदि उसी मैदान में एक पागल कुत्ता आ जाए जो उस व्यक्ति को काटने के लिए उसकी ओर बढ़ रहा हो तब क्या वह व्यक्ति अपने बचाव के लिए भागेगा? हाँ, और शायद पहले से भी अधिक तेज. आखिर ऐसा क्या बदला? कौन कौन सी शारीरिक क्रियाएं इस बीच हुई है? शरीर ने दिमाग को अपने खतरे में होने का सिग्नल भेजा. दिमाग ने भी बदले में त्वरित कार्रवाई करते हुए ऐसे हार्मोन्स का स्त्राव बढ़ा दिया जिनसे वह व्यक्ति उत्तेजित हो और भाग सके. यह शरीर द्वारा अपने बचाव की साधारण प्रोटोकॉल है.
इसी तरह शरीर लगातार दिमाग को शरीर में मौजूद शुगर की मात्रा के बारे में संकेत देता है. जैसे ही शुगर एक निर्धारित स्तर से कम होने लगती है दिमाग का एक हिस्सा सक्रिय होता है और कुछ ख़ास तरह के हार्मोन्स का स्त्राव शरीर में शुरू हो जाता है जिनसे हमें भूख का एहसास होता है. हम भूख लगने का एहसास होने पर कुछ खाते हैं और शुगर लेवल सामान्य हो जाता है. यहाँ यह बता देना जरूरी है की शरीर की सबसे छोटी इकाई कोशिका होती है जिसे चालू रखने के लिए शुगर एनर्जी का सबसे पहला स्त्रोत है.
अब प्रक्रिया को थोडा बदलकर देखें. अगर किसी तरह दिमाग को भेजे जाने वाले सिग्नल में शुगर लेवल अधिक होने की जानकारी हो तो क्या दिमाग ऐसे हार्मोन्स का स्त्राव होने देगा जिनसे हमें भूख का एहसास होता है? नहीं. यानी अगर दिमाग को भेजे जाने वाले सिग्नल बदले जा सकते हैं तो किसी भी इंसान की भावनाएं भी बदली जा सकती हैं. दरअसल इंसानी शरीर विभिन्न परिस्थितियों में एक ख़ास पैटर्न में बर्ताव करता है. जैसे उदास होने पर व्यक्ति धीरे धीरे चलेगा, कंधे झुके होंगे, सांस भी वह धीरे धीरे लेगा जबकि उत्तेजित/खुश होने पर उसकी चाल तेज होगी, कंधे और हाथ खुले होंगे, सांस भी तेज होगी.
तो क्या यह संभव है कि दिमाग को भेजे जाने वाले सिग्नल्स बदले जा सकें? बिलकुल. अगर आप शारीरिक प्रक्रिया में बदलाव कर सकते हैं तो दिमाग को भेजे जाने वाले सिग्नल स्वयं बदल जाते हैं. उदाहरण के लिए मान लीजिये आप गुस्से में हैं ऐसे में सबकी सलाह होती है सांस धीरे धीरे लेना जिससे उत्तेजना कम हो जाए. यह केवल दिमाग को धोखा देने का ही एक रूप है. शरीर धीरे धीरे सांस लेगा जिससे दिमाग यह सिग्नल प्राप्त करेगा कि कोई खतरा नहीं है, सब ठीक है और वह शरीर को साधारण अवस्था में रखने वाले ह्र्मोंस का स्त्राव चालू रखेगा और आपकी उत्तेजना कम हो जायगी. जबकि विपरीत परिस्थिति में गुस्से और शारीरिक गति को बढाने वाले हार्मोन्स का स्त्राव होगा.
इसी तरह अगर कोई व्यक्ति उदास है तो वह अचानक अपनी चाल ढाल बदल दे (तेज चलना, ऊंचे कंधे, खुले हाथ, लगभग नाचने जैसी स्थिति) तो अचानक से उस व्यक्ति का मूड ठीक हो जाएगा. यह कोई टोटका नहीं केवल साधारण विज्ञान है. शरीर की क्रियाओं में बदलाव के साथ मानसिक स्थिति में बदलाव संभव है. तो अगली बार जब मन उदास हो थोडा नाचकर देखिये.
(पुनश्च:- बहुत से साथियों ने पिछले लेख पर और बहुत सी प्रतिक्रियाएं दी थीं जिन पर इस ब्लॉग में बात नहीं रख पाया, उम्मीद है इसके लिए माफ़ी मिलेगी. पिछले लेख पर प्रतिक्रिया देने के लिए ख़ास तौर पर डा. राकेश पारिख, अनुज शर्मा, मिलन गुप्ता, ज्योति बुडाकोटी का खास तौर पर धन्यवाद. आप सभी का सहयोग आगे भी अपेक्षित होगा. खास तौर पर अनुज भाई, आपने जो बातें कही थी उन पर आगे लिखने की कोशिश रहेगी. इस बार माफ़ी.)
आपकी प्रतिक्रियाओं का इन्तजार रहेगा.
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