“भारत एक लोकतान्त्रिक देश है.”
“हमें न्याय व्यवस्था पर पूरा भरोसा है.”
“कानून अपना काम कर रहा है.”
शायद आने वाली पीढियां इन ‘जुमलों’ को सुन भी न पायें. (जुमला शब्द जानबूझ कर इस्तेमाल किया गया है क्योंकि जब ये शब्द इस्तेमाल किये जाते थे तब भी ये केवल जुमले ही थे. इनकी सत्यता पर शायद ही किसी को यकीन हो, कम से कम इस्तेमाल करने वाले लोगों को तो बिलकुल नहीं था.) अब नए दौर में नई व्यवस्था उभर कर सामने आ रही है, जिसमें एक ओर तो यूनिवर्सिटी कैम्पस में आतंकियों के पक्ष में नारे लगाने वाले लोग हैं तो दूसरी ओर उन्हें न्यायलय परिसर में पीटने वाले लोग हैं. एक तरफ वे पार्टियाँ हैं जो विचारों की स्वतंत्रता के गिलाफ तले देशद्रोह को छुपाना चाहते हैं तो दूसरी ओर इन ‘देशद्रोहियों’ को जनता को सौंप देने वाले उन्मादी देशभक्त हैं. एक तरफ नए विडियोज की रौशनी में अपने नेता को बचाने वाले अंधभक्त हैं तो दूसरी ओर टीवी की अँधेरी स्क्रीन के पीछे छुपे पत्रकार हैं जिनके साथी कोर्ट परिसर हमले में घायल हुए हैं. (खुद पर पड़ा एक थप्पड़ या लाठी किसी भी बड़े विचार या किसी की शहादत को दबा सकती है.) हैरानी की बात ये है एक ओर मीडिया कन्हैया के पब्लिक ट्रायल को गलत ठहराती है तो दूसरी ओर वकीलों और कुछ नेताओं का मीडिया ट्रायल चाहती है.
इन सबके बीच सरकार गायब है. जिस पुलिस ने गिरफ्तारी की, जो एजेंसी किसी मामले की जाँच करेगी, जो अदालत सुबूतों और गवाहों की रौशनी में फैसला लेगी उस पर किसी को शायद यकीन नहीं है.
इन सबके बीच पिस रहा है जेएनयू, जो एक गौरवशाली इतिहास के साथ स्वर्णिम भविष्य की राह दिखाता संस्थान है. इन सबके बीच मर रहा है वह कश्मीरी जो कश्मीर से पढने दिल्ली आया और अब उस पर आतंकवादी होने का ठप्पा लग गया. इन सबके बीच दम घुट कर मर रहा है वह कश्मीरी पंडित जिसे निर्वासित हुए दो दशक हो गए और आज भी जिसकी सुध लेने वालों को सांप्रदायिक करार दिया जाता है. इन सबके बीच जलकर मर गया है वह पत्रकार जिसे उत्तर प्रदेश के एक नेता ने जला कर मार दिया. (लेकिन उत्तर प्रदेश में चुनाव हैं और ऐसे में भारी भरकम चुनाव प्रचार बजट को खतरे में डालना किसी मीडिया संस्थान के बस में नहीं क्योंकि मुनाफा पहला और आखिरी सत्य है.) इन सबके बीच फंस गया है वह फौजी जिसने कई दशक तक बिना किसी शिकायत के देश का नेतृत्व किया और अब पिछले कई सालों से वह २४ घंटे के खबरिया चैनलों के बक्सों में कैद होकर भारत की रक्षा स्तिथियों के बारे में आम जनता को बताता था. आज वह फौजी टीवी पर रोने को मजबूर है और उसके शब्द हैं “आज जिस तरह देशभक्ति के ऊपर बहस चल रही है और जैसे जैसे बयान आ रहे हैं ऐसा लग रहा है कि देश की रक्षा करने के लिए हम फौजी अकेले पड़ गए हैं.” इन सबके बीच बर्फ में दब कर मर गया वह फौजी भी है जिसके नहाने और पीने का मग एक ही होता है और जिसे शून्य से ५० डिग्री नीचे रहने की ट्रेनिंग यह कहकर दी जाती है परिस्थितियां कुछ भी हों शिकायत नहीं करनी.
सबसे ज्यादा इन सबके बीच दबकर आक्सीजन की कमी महसूस कर रहा है वह संविधान, वह तिरंगा, वह देश और वह जनमानस जिसके लिए यह पूरा तंत्र है.
आखिर क्यों सबको इतनी जल्दी है किसी को दोषी या निर्दोष साबित करने की? आखिर क्यों हम किसी जांच के पूरे होने का इन्तजार नहीं कर पाते? क्या सचमुच में इतने भ्रष्ट हैं ये संस्थान? या हम दो दो मिनट के व्हात्सप विडियो देखकर न्याय को भी मैगी नूडल समझ बैठे हैं. यही उन्माद लगभग एक दशक पहले दिखाई दिया था जब एक पुलिस एनकाउंटर में मरी एक लड़की को ‘भारत की बेटी’ ‘पीड़ित’ ‘अबला’ और न जाने क्या क्या कहा गया था. एनकाउंटर करने वाले अधिकारी कई कई साल जेल में रहे और अब एक दशक बाद डेविड कोलमैन हैडली की गवाही यह कहती है कि वह एनकाउंटर ठीक था और ‘इशरत जहाँ’ एक आतंकी थी. देश हित में काम करने वाले अधिकारीयों से कोई माफ़ी मांगने जाएगा? एक आतंकी का समर्थन करने के लिए देश से माफ़ी मांगने कोई सामने आएगा? नहीं, क्योंकि सब व्यस्त हैं कन्हैया को देशद्रोही या देशभक्त साबित करने में. एक दूसरा मामला था. पठानकोट के पुलिस अधिकारी सलविंदर सिंह का, जिन पर आतंकियों से मिले होने का शक था लेकिन शुरूआती जांच एक बाद जिन्हें निर्दोष पाया गया. बहुत से उदाहरण मिल जायेंगे. दोषी होने के भी और निर्दोष साबित होने के भी. लेकिन वोट बैंक के चश्मे से देश को देखने वाले ये कैसे देख पायेंगे? सबको जल्दी है अपना पक्ष सही साबित करने की. और अपना पक्ष गलत साबित होने पर सम्बंधित व्यक्ति या संस्था की इमानदारी अपर सवाल उठाने की.
जो अर्नब गोस्वामी व्यापम के समय कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों के चेहेते थे वे आज उनके निशाने पर हैं. जो बस्सी कभी कांग्रेस भक्त कहे जाते थे आज भाजपा भक्त कहे जा रहे हैं. यही बात विभिन्न संस्थाओं पर भी लागू होती है. क्या हम देश के किसी भी संस्थान, किसी संस्था, किसी जांच एजेंसी, किसी न्यायालय को भरोसे के लायक ही नहीं समझते? यदि ऐसा है तो यह खतरनाक स्थिति है. सच सामने आने का भरोसा भी रखना होगा और तब तक धैर्य भी जरुरी है.
अंत में, जेएनयू के उन छात्रों के लिए जो इस पूरे मामले को तटस्थ होकर देख रहे हैं. आप का कैम्पस वामपंथ-दक्षिणपंथ, संघी-गैरसंघी, देशद्रोही-देशभक्त की बहस में उलझ कर एक राजनैतिक अखाड़ा बन गया है. पूरे जेएनयू पर जो ठप्पा लग रहा है (चाहे वह वामपंथी होने का हो या दक्षिणपंथी होने का. देशभक्त का हो या देशद्रोही का.) उसे हटाने के लिए आपको ही आगे आना पड़ेगा. यही मौका है कि आप आगे आकर कन्हैया-उमर खालिद से आगे आकर भारतीय न्याय व्यवस्था में आस्था जताएं. आप आवाज नहीं उठाएंगे तो आपके ऊपर उनकी आवाज थोप दी जायगी जो अपने राजनैतिक फायदे के लिए आपका फायदा उठा रहे हैं. जो आपको समर्थन देने आये हैं उनसे पूछिए कि उन्होंने कलावती से जो वादे किये थे उसका क्या हुआ? जब अगली बार अफजल के समर्थन में कोई मीटिंग हो तो उनसे भी पूछिए कि आखिर ये क्यों? धुएं से निजात पानी है तो पहले आग बुझायें. आपका कैम्पस शिक्षा संस्थान है इसे राजनीति से बचाना आपकी जिम्मेदारी है. देश आपकी शिक्षा को फंड करता है आपके साथियों की राजनीति को नहीं.
सटीक और सत्य विवेचना
ऐसा लग रहा है की कुछ चूहे बिलबिला कर बिल से बहार निकल रहे हैं अब