बंदूकों के साये में लोकतंत्र का मतलब?

पहला दृश्य: 2 नवम्वर 2000
वह अट्ठाईस साल की है. उसकी सगाई हो चुकी है. मंगेतर, सूटों साड़ियों पर होने वाली कढ़ाई और साधारण साज श्रृंगार के अलावा उसका अकेला शौक कवितायेँ लिखना था. एक छोटे से गाँव की मासूम सी लड़की और हो भी कैसी सकती थी. (भले ही यह गाँव मणिपुर का ही क्यों न हो.) आज बृहस्पतिवार था जो इस लड़की का साप्ताहिक उपवास होता है. रोज की तरह आज भी इस गाँव के बस अड्डे पर कुछ लोग खड़े हैं. बस अभी आई नहीं है. बस स्टैंड पर उस लड़की के जाने पहचाने कुछ चेहरे हैं जिन्हें वह घर के आसपास वाले घरों में या गाँव के आसपास वाले गांवों में देखती रही है. इन्तजार उकता जाने की हद तक बढ़ गया है हालांकि इस तरह के सुदूर गाँवों में यह आम बात है. जरा अतिशयोक्ति की छूट मिले तो कहा जा सकता है कि सार्वजनिक परिवहन और सरकारी स्कूलों में अध्यापक यहाँ अमूमन साल में दो बार ही आ पाते हैं.  अचानक एक गाड़ी आकर रुकी और कई कानफोड़ू धमाके हुए और उसके बाद कुछ चीखें हवा में तैरने लगी. धमाके बन्दूक की नली से निकली गोली के कारण हुए हैं तो चीखें मरने वालों और अधमरे लोगों की हैं. सुनने वालों में वह अट्ठाईस साल की लड़की है तो बंदूकें थामे भारतीय पैरामिलिट्री फ़ोर्स ‘आसाम राइफल्स’ के जवान हैं. अचानक जैसे सब बदल गया. अब किसी को बस का इन्तजार नहीं है और एम्बुलेंस के आने की उम्मीद तो इन इलाकों में होती ही नहीं. आसपास के घरों और दुकानों में दुबके लोग इन्तजार कर रहे हैं कि कब सेना के जवान वापस जाएँ और वे घायलों को उपचार उपलब्ध करा सकें. सेना के जवान वहां पड़े हुए शरीरों को टटोल रहे हैं अपने मिशन की सफलता का अनुमान लगाने के लिए. मिशन है गुप्त सूचना के आधार पर उस बस स्टैंड पर खड़े लोगों में खड़े उग्रवादी को मार गिराना. निशानदेही मुश्किल थी और उग्रवादी द्वारा विपरीत हमले की आशंका ज्यादा इसलिए पहले हमला करने की रणनीति ज्यादा बेहतर लगी. सेना ने वही किया. मिशन कामयाब रहा, उग्रवादी मारा गया था और दस सिविलियन भी. मरने वालों में ६० साल की लेसंग-बमइबेतोम्बी से लेकर 18 साल की सिनम चंद्रमणि हैं. इस अट्ठारह साल की लड़की को १९८८ में ६ साल की उम्र में राष्ट्रीय वीरता पुरूस्कार भी मिल चुका था और आज वह सेना की गोली से मारी गई. लेकिन इन दस लोगों के मरने की चिंता जवानों को इसलिए नहीं थी कि सेना के पास एक ढाल थी अफस्पा. आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट.

दूसरा दृश्य : 2 अक्टूबर 2006
आसाम राइफल्स का हैडक्वार्टर. सेना के जवान मुस्तैदी से अपने किले की सुरक्षा करने में व्यस्त थे लेकिन चेहरों पर एक बेचैनी थी. अचानक उस बेचैनी का सबब सामने आया. कुछ महिलायें. नग्न. पूर्णतया नग्न. एक ऐसे समाज में जहाँ सर से पल्लू का हटना भी अपराधों की श्रेणी में आता हो? महिलायें न केवल नग्न थी बल्कि यह उनकी अपनी मर्जी से था. क्यों? इसका जवाब उनके हाथो में पकडे बैनर दे रहे थे जिन पर लिखा था ‘इन्डियन आर्मी! कम एन्ड रेप अस’. भारतीय सेना के जवान मुंह चुरा रहे थे क्योंकि इन महिलाओं में बहुत सी उनकी छोटी बहन की उम्र की थी तो कुछ के चेहरे उनकी माँ पत्नी भाभी इत्यादि से मिलते थे. जब मामला हद से ज्यादा बढ़ने लगा तो सभी महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में सेना का विरोध करने के जुर्म में इन्हें तीन महीने की सजा सुने गई. विरोध का कारण वही था, अफस्पा. आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट.

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तीसरा दृश्य : दुसरे दृश्य का बचा खुचा हिस्सा 
एयर इंडिया की एक फ्लाइट जो इम्फाल से दिल्ली की ओर जा रही थी. कुछ महिलायें इसमें सवार थी जिन्हें भारत सरकार ने बहादुरी पुरूस्कार दिया था. महिलायें मणिपुर से थी और उसी संगठन का हिस्सा थी जो भारतीय सेना के खिलाफ नग्न महिलाओं के प्रदर्शन का सूत्रधार था. भारत सरकार ने इस विरोध को कुचला नहीं था बल्कि इसे सम्मानित करके अपने पाले में ले लिया था. किसी विरोधी का क़त्ल करना विरोध को ख़त्म करने का आसान तरीका तो है पर लंबे समय में कारगर तरीका उसे सम्मानित करना ही है. सम्मान का कारण वही है , अफस्पा. आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट.

दृश्य चार : पहले दृश्य का निरंतर चल रहा हिस्सा 
एक महिला मणिपुर के एक अस्पताल में है. २ नवम्बर 2000 से यह महिला लगातार भूख हड़ताल पर है. नाक में एक नाली चढ़ाई गई है जिस से उसे जिन्दा रहने के लिए जरूरी भोजन तरल पदार्थ के रूप में दिया जाता है. यह नली और यह अस्पताल 15 साल से इस महिला के साथ हैं. महिला नजरबन्द है और उस पर खुद को खत्म करने की कोशिश का आरोप है. कोई मुकदमा कभी चलाया नहीं गया, बस आरोप लगाकर इस अस्पताल के एक बेड पर महिला को नजरबन्द कर दिया गया है. बीच में कई बार रिहाई भी हुई मगर वह केवल कागजों में थी, असल रिहाई कभी नहीं हुई. (इन्डियन पैनल कोड की धारा 309 किसी भी व्यक्ति को एक साल से अधिक कैद में रखने की इजाजत नहीं देती इसलिए हर साल इस महिला को छोड़ा जाता है और दोबारा बंदी बना लिया जाता है. केवल एक बार 2006 में वह लगातार ४ दिन आजाद रही) महिला का नाम इरोम चानू शर्मिला है और यह वही लड़की है जो एक दिन बस स्टैंड पर खड़ी थी खून की लाल चादर के बीच, जो उन लाशों ने बनाई थी जिन्हें बन्दूक से निकली गोली ने बिछाया. लड़की का गुनाह केवल इतना था कि उसने इस पूरे काण्ड का विरोध किया था और विरोध करने के बाद उसे भयावह सच्चाई सामने दिखाई दी थी. सचाई यह थी कि वह एक आजाद मुल्क के आजाद राज्य की गुलाम बाशिंदी थी क्योंकि जिस इलाके में वह रहती थी वहां अंग्रेजों के द्वारा लागू किया गया एक स्पेशल एक्ट लागू था जो अंग्रेजों की सशस्त्र सेना को विशेषाधिकार देता था क्रांतिकारियों के खिलाफ. उसके बाद भारत आजाद हुआ और यह कानून देश के बाशिंदों पर लगा दिया गया. यह विशेषाधिकार किसी की जान लेने तक है और आप किसी कोर्ट में इसके खिलाफ मुक़दमा दायर कर सेना से उसके इस कदम का औचित्य तक नहीं पूछ सकते.  महिला ने विरोध किया और अपने साधारण नागरिक अधिकारों को कुचलने के खिलाफ सवाल उठाया तो जवाब मिला, अफस्पा. आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट.

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और बाकी सब कुछ
अफस्पा भारत के कुछ राज्यों के रोजमर्रा के जीवन की कड़वी सच्चाई है. एक ओर इसे बाकी राज्यों में राष्ट्रीय सुरक्षा के डर में लपेट कर परोसा जाता है तो दूसरी ओर इसे राष्ट्रवाद की चाशनी में डुबाकर सवालों के दायरे से परे खड़ा कर दिया जाता है. इसलिए अफस्पा पर बात होते ही अगर आप पर भारतीय सेना के विरोध का ठप्पा लगा दिया जाये तो हैरान मत होइए, हालाँकि खुद भारतीय सेना के जवान इस कानून से कितना सहमत हैं इस पर एक अलग बहस हो सकती है. विरोधाभास यह भी है कि अफस्पा के हटने का विरोध करने वालों में अधिकतर लोग वह होंगे जो भारत सरकार द्वारा इंटरनेट रेग्युलेशन का विरोध करने वालों में भी शामिल हैं, यानी जो लोग कुछ इंटरनेट साइट्स के बंद होने पर असहमत हैं वे वहुत सी सांसों के बंद होने पर सहज महसूस करते हैं. यह एक जरूरी कानून हो सकता है लेकिन किसी भी कानून की सफलता के लिए जरूरी बाकी अवयव, जैसे जनहित और जन-सहमति, उन इलाकों में गायब हैं जहाँ अफस्पा लागू है.
एक बार इम्फाल के उस अस्पताल में जाकर देखिये जहाँ अकेलापन इस कदर हावी है कि इरोम को अपने कमरे में केवल दो गिनीपिग (मेडिकल परीक्षणों के लिए इस्तेमाल होने वाली जानवर की एक नस्ल) के साथ रखा गया है और एक बार इरोम कोर्ट में जाते वक्त इनमें से एक को अपने कपड़ों में छिपाकर ले गई थीं.
उसके बाद हिम्मत बच जाए तो उन घरों में जाकर देखिएगा जहाँ से कई जवान जनाजे/अर्थियां उठी हैं तो कई जवान सालों से गायब हैं जिन्हें मुर्दों में गिना जाए या जिन्दों में, यह सवाल घरवाले आज तक हल नहीं कर पाये.
मुद्दों पर खुली बहस करने वाले सथियों से इस मुद्दे को भी बहस के लिए खोलने का आग्रह है. अखंड भारत के लिए सबका साथ सबका विकास के साथ साथ सबके अधिकार भी सुरक्षित हों यह जरूरी है. आतंकवाद का मुकाबला जनता के साथ के बिना संभव नहीं. आतंकवाद का खत्म होना जरुरी है और इस पर कोई समझौता संभव नहीं लेकिन उन राज्यों की जनता को भी उस भारत का हिस्सा बनाएं जो आजाद है आधी रात की पार्टियों के लिए, सूचना के मुक्त प्रवाह के लिए, भारतीय सेना को अपना दोस्त मानने के लिए. कानून आतंकवादियों के लिए है इसलिए सख्ती जरूरी है लेकिन साधारण नागरिक ही अगर इसका शिकार बनेंगे तो शांति किसके लिए स्थापित की जा रही है? कानून को एक झटके में हटाना शायद संभव नहीं पर मानवीयता के करीब तो लाया जा सकता है.
इरोम पिछले 15 सालों से अपनी मां से नहीं मिली क्योंकि उन्हें लगता है माँ खाना खाने को कहेगी और वह उनकी बात शायद न टाल पाए. दुनिया के किसी कोने में इरोम की तरह की कोई कैदी नहीं. कम से कम मुझे इसकी जानकारी नहीं, गूगल सर्च में दक्ष साथी ऐसा कोई दूसरा उदाहरण बता पाएं तो मेहरबानी होगी. एक ओर भारतीय कानून में बदलाव के बाद आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है. इस बदलाव के पीछे मूल विचार यह है कि आत्महत्या के पीछे उसका कारण अहम होता है. इसलिए निदान कारण का होना चाहिए. दूसरी ओर आज भी इरोम उसी कमरे में नजरबंद है जहाँ 15 साल पहले उसे आत्महत्या की कोशिश करने का आरोपी बनाकर लाया गया था. इन पंद्रह सालों में लगभग हर पार्टी हर विचारधारा के नुमाइंदे सरकार में रह चुके लेकिन किसी में हिम्मत नहीं इस कारण के निदान की.
इरोम कहती हैं ‘मैंने आत्महत्या की कोशिश नहीं की और न मैं करुँगी, मैंने केवल मणिपुर का दुःख आपकी कलम पर चढ़ाने की कोशिश की है. मेरा अनशन आपको केवल इस दर्द की आवाज सुनाता है और आप इसे सुन सकें तो यह अनशन आज और अभी ख़त्म हो सकता है. सरकारी जबरदस्ती से मैं लड़ नहीं सकती लेकिन इस जबरदस्ती की सीमा केवल मेरे शरीर तक है, आत्मबल को तोड़ने का यह प्रयास सफल नहीं होगा. मैं भी जिंदगी से प्यार करती हूँ और हँसते हुए जीना चाहती हूँ लेकिन सच से मुंह चुराकर मुझे जीना नहीं आता. मैं नहीं चाहती आप मुझे असाधारण व्यक्ति मानें मैं केवल एक साधारण लड़की हूँ जिसके पास जीने का एक उद्देश्य है, और वह उद्देश्य है एक बेहतर मणिपुर, एक बेहतर भारत.’

अंत में एक कविता

उसने कई दिनों से नहीं खाया है,
उसने नहीं खाया गर्म भात और दाल,
तेज भूख!
गर्म गर्म भात और दाल!
भूखे पेट….. एकाध दिन….. न मिले तो?
धौंकनी की तरह कैसे चलती है साँसे…
किसी गरीब से पूछो
किसी भूखे से पूछो
हो सके तो खुद भूखे रहो कुछ दिन
फिर खाओ गर्म भात दाल रोटी
कैसे जान में जान आती है।।।।

वही गर्म दाल भात
इरोम ने नहीं खाया है कई दिनों से…..
हजार दिनों से भी अधिक….
नहीं चार हजार दिनों से अधिक….
पंद्रह साल में दिन कितने होते हैं?

About Satish Sharma 44 Articles
Practising CA. Independent columnist in News Papers. Worked as an editor in Awaz Aapki, an independent media. Taken part in Anna Andolan. Currently living in Roorkee, Uttarakhand.

5 Comments

  1. Dear Mr.Satish Sharma ji,
    Apke is blog ne jo sachchai dikhai hai usko padhkar dil sochne par majboor hai ki hum kis azzad bharat mai kesi aazzadi ke sath rehte hai.Sachchai ko duniya ke samne lane ka bahut bahut shukriys.

  2. Well presented. You have raised a very important topic. The use of AFSPA is a tricky topic. We have to understand pro’s and cons of it. Your article could have been perfect if you would have presented the viewpoint of army and Government as well.

  3. सत्य सर जी इन बहरी और तानाशाही सरकारो को आम इंसानो की जिंदगी से कोई सरोकार नही

  4. निशब्द ,शानदार लेख (मगर अंध रास्ट्र प्रेमियों को तीर जैसा लगेगा )बधाई

  5. Mai enhe enke prarambhik virodh ke kaal se hee jaanta hoo aur enke vicharo kee vajah se enkaa prashanshak vhee hoo. Enkee baate suchhee hai enkaa dard suchha hai magar es sab ke saath ek such yah bhee kee un paristhitiyo ke liye jimmevaar sarkare ab nahee. Khair enke vicharo ko juld hee vaajib aayam mile aur enko saamanya dainik dincharya !

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