आम आदमी पार्टी के पुराने साथियों से लगातार संपर्क में होने के कारण पार्टी के अन्दर चल रहे वैचारिक संघर्ष से लगातार वाकिफ था और मेरे लिए यह पूरी तरह स्वाभाविक प्रक्रिया थी जो किसी भी संगठन के अन्दर चलती रहती है. मैं स्वयं अन्ना आन्दोलन और उसके बाद पार्टी बनने के बाद इस तरह के वैचारिक टकरावों का हिस्सा रह चुका हूँ और इस तरह के टकराव से उछलने वाले कीचड से भी पूरी तरह वाकिफ हूँ, लेकिन इस बार ये टकराव पार्टी के शीर्ष स्तर पर था इसलिए उम्मीद कर रहा था कि पार्टी के शीर्ष व्यक्ति इसे बंद कमरे के अन्दर एक बेहतर समाधान के साथ सुलझा लेंगे. बेहतर समाधान इसलिए क्योंकि कई मामलों में मैं अरविन्द केजरीवाल से खुद को असहमत पाता हूँ तो कई मामलों में योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण से. पार्टी के अन्दर चल रहा वैचारिक संघर्ष अचानक जिस तरह सत्ता संघर्ष के रूप में सामने आया वह हैरान कर देने वाला है.
पिछले दो दिनों में पार्टी के अन्दर चल रही लड़ाई जिस तरह मुद्दों से भटक कर व्यक्तियों के ऊपर केन्द्रित हो गई है वह दुर्भाग्यपूर्ण है और इसे दुर्भाग्यपूर्ण बनाने में कुछ नेताओं और अधिकाँश कार्यकर्ताओं का हाथ है. एक ओर जहाँ पार्टी के कुछ नेता(?) जैसे आशीष खेतान, आशुतोष आदि लगातार इस कीचड़ को उछालने में अपना योगदान देते रहे वहीँ दूसरी ओर अधिकाँश कार्यकर्ता भी इसे व्यक्तिवादी हमले का रंग देने में पीछे नहीं रहे. शायद समर्थकों का यही कर्तव्य होता है कि वे उसे दोहरायें जो उनके नेता ने कहा है. बिना अपना दिमाग लगाये. आम आदमी पार्टी के समर्थकों आप इसमें कामयाब रहे. बधाई हो. लेकिन उस लड़ाई का क्या जो अन्ना आन्दोलन से होते हुए राजनीतक संघर्ष में बदल गई थी देश को बेहतर भविष्य देने के नाम पर?
कभी कल्पना की है बिना अरविन्द केजरीवाल के अन्ना आन्दोलन की? नहीं न? तो क्या कभी कल्पना की है बिना योगेन्द्र यादव के पार्टी की पालिसी से समबन्धित अधिकाँश निर्णयों की? अब जरा कल्पना करें बिना प्रशान्त भूषण के देश के बड़े घोटालों से पर्दा उठाने की और उनकी लड़ाई को सुप्रीम कोर्ट तक ले जाने और जीतने की? असंभव है? तो एक और कल्पना करें, क्या होता अगर शांति भूषण जेपी आन्दोलन में अपनी भूमिका सीमित रखते? क्या होता अगर अपनी पूरी जिंदगी वो लगातार केवल सत्ता संघर्ष में लगे रहते? किस नींव पर खड़ी होती पार्टी अगर प्रशान्त भूषण लगातार खुलासों के लिए परदे के पीछे मेहनत न करते? किस की पोल खोलते और किसके विरोध की बुनियाद पर खड़ा होता यह राजनैतिक आन्दोलन? पुरानी राजनीति को गलत साबित करने के पीछे असली मेहनत प्रशांत भूषण और शांति भूषण की थी तो इस से जनता को जोड़ने का काम अरविन्द केजरीवाल ने किया. इस सारे आन्दोलन को प्रशासनिक रूप से व्यवहारिक बनाने के काम को अंजाम दिया योगेन्द्र यादव ने. ये पूरी तिकड़ी एक दूसरे के लिए रीढ़ की हड्डी है यह सब जानते हैं लेकिन बहुत से मामलों में इनके विचार अलग अलग भी होते हैं जो स्वाभाविक है. एक नजर उस पहलू पर भी डालते हैं.
एक तरफ अरविन्द केजरीवाल हैं जो जमीनी स्तर पर लोगों के साथ काम करते हैं (इसलिए स्वाभाविक तौर पर पार्टी में भी उनके समर्थक ज्यादा हैं और शायद पार्टी की नैशनल काउन्सिल या पीएसी में भी.) दूसरी तरफ योगेन्द्र यादव हैं जो लम्बे समय तक सैफोलीजी में काम करते रहे हैं और इस क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक भारतीय चेहरा हैं. प्रशांत भूषण लगातार जटिल कानूनी लड़ाइयाँ लड़ते हुए भारतीय राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर करते रहे तो सुप्रीम कोर्ट और अन्य संस्थाओं के हस्तक्षेप से सुधार की कोशिशें भी करते रहे. यहीं असली टकराव की जड़ है. एक तरफ अरविन्द केजरीवाल आम जनता से सीधी जवाबदेही को मुख्य मानकर तमाम प्रक्रियाओं को दोयम दर्जे की प्राथमिकता मानते हैं तो दूसरी ओर योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण जवाबदेही के साथ साथ उचित संवैधानिक और सांगठनिक प्रक्रियाओं को भी प्रमुख कर्तव्य मानते हैं. इसी को लेकर अक्सर पार्टी में कई बार दोनों पक्षों के बीच कई बार बातचीत हो चुकी है तो कई बार यह बातचीत टकराव का रूप ले चुकी है. लेकिन इस से पहले यह वैचारिक मतभेद कभी सार्वजनिक रूप से सामने नहीं आया और न ही इसमें कार्यकर्ताओं की भागीदारी हुई, इसलिए यह पूरा संघर्ष बेहतरी की ओर बढ़ता दिख रहा था.
इस बार जब पार्टी के कुछ नेताओं ने सार्वजनिक रूप से इस मामले पर टिप्पणी की तो पार्टी कार्यकर्ता भी इसमें कूद पड़े. मैं यहाँ यह साफ़ कर दूं कि मैं व्यक्तिगत रूप से इस पार्टी से केवल इसलिए सहानुभूति रखता हूँ क्योंकि यह एक ऐसे आन्दोलन की उपज है जिसमे मैं स्वयं भागिदार रह चुका हूँ और इसके आगे जाकर यह पार्टी देश के राजनैतिक बदलाव की बात करती है और इसमें आंशिक रूप से सफल होती दिख रही है, हालांकि अधिकाँश संघर्ष और उसमें मिलने वाली सफलता अभी भविष्य के गर्त में है. आन्दोलन का नैतिक बोझ और राजनैतिक बदलाव की बड़ी जिम्मेदारी उठाये पार्टी के कार्यकर्ताओं से यक़ीनन उस से कुछ ज्यादा समझदारी की उम्मीद की जा सकती है जैसी उन्होंने पिछले कुछ दिनों में उन्होंने दिखाई है.
मुझे यह कहने में कोई शर्म नहीं है कि आशुतोष के मुकाबले पार्टी के जमीनी कार्यकर्ता को मैं क्यादा जिम्मेदार मानता हूँ और उन से ज्यादा जिम्मेदारी दिखाने की उम्मीद करता हूँ. कारण बड़ा सीधा है, आशुतोष या आशीष खेतान (पत्रकार और आरटीआई कार्यकर्ता के तौर पर किये गए उनके करों को लेकर मैं उनका प्रशंसक रहा हूँ) जैसे नेता इस आन्दोलन में तब आये हैं जब इस पेड़ पर फल लगने शुरू हुए थे और इसलिए उनका ध्यान केवल फलों पर है. उनकी हर चाल उस फल को पाने की ओर पढ़ते उनके कदम के अनुसार है जबकि जमीनी कार्यकर्ता विचारधारा को फलते फूलते देखना चाहता है और वह भी बिना किसी लालच के. वैसे भी आम आदमी पार्टी के सत्ता में आने पर कार्यकर्ताओं को क्या मिलेगा? केवल वही अधिकार जो किसी भी आम आदमी को मिलेंगे. तो उसका संघर्ष ज्यादा व्यावहारिक और निस्वार्थ होगा लकिन भावुक भी. लेकिन इस बार यह आम कार्यकर्ता कहीं न अकहीं कमजोर पड़ा है. शायद इसके पीछे अरविन्द केजरीवाल की करिश्माई जीत हो. यहाँ सवाल यह है कि इस राजनैतिक आन्दोलन का लक्ष्य क्या है? जीत या व्यवस्था में सम्पूर्ण बदलाव और इसके लिए चाहे अरविन्द, योगेन्द्र या प्रशान्त जी से भी भिड़ना पड़े?
भावुकता के इस वेग में विचारधारा के संघर्ष को व्यक्तिवाद में न बदलें. अरविन्द केजरीवाल हो या प्रशांत भूषण या फिर योगेन्द्र यादव, किसी का भी विरोध या समर्थन करने से पहले खुद से पूछें कि क्या आप इन व्यक्तियों के लिए पार्टी में जुड़े थे या मुद्दों के कारण? इन लोगों के आरोप या उन आरोपों के जवाब सैद्धांतिक स्तर पर कितने ठीक हैं? क्या मौजूदा कदमों पर चलती आम आदमी पार्टी सही भविष्य देगी या कहीं कुछ बदलाव की जरुरत है? (और यकीन मानिये बेहतरी के लिए बदलाव की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है) सवाल उठाना सीखें. क्योंकि यही एक बेहतर भविष्य देगा. भगवान् किसी को न बनाएं, न अरविन्द केजरीवाल को, न प्रशांत भूषण को, न योगेन्द्र यादव को. व्यक्तियों पर नहीं मुद्दों पर बात करें.
अंत में, मुझे अंदरूनी तौर पर आशा है कि योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण और अरविन्द केजरीवाल उतने नासमझ या अनैतिक नहीं है जितने उनके समर्थक/विरोधी उन्हें बता रहे हैं. वे इन सब मामलों का निपटारा पार्टी फोरम पर कर सकते हैं और यक़ीनन पार्टी को कुछ बदलावों की जरूरत है और हमेशा रहेगी. खास तौर पर तब, जब कोई बड़ी जीत पार्टी को मिलेगी क्योंकि तभी व्यक्तिवाद के हावी होने और सिद्धांतों के गौण होने का सबसे अधिक खतरा होता है. अतिवादी विचारों से दूर रहें. राजनीती का स्तर बहुत नीचे हैं इसे उठाकर नैतिकता के स्तर तक लेकर जाना लक्ष्य है इसे याद रखें. जैसा कि एंडरसन ने कहा था “धर्म को लेकर कोई राजनीति नहीं होनी चाहिए लेकिन राजनीती का एक धर्म जरुर होना चाहिए.” अपना धर्म पहचाने और देश के लिए जवाबदेह बनें, किसी व्यक्ति के लिए नहीं.
Sahi.hi h kuki vyakti nahi vichar mayne rakhte hain
This issue can go either way. It can break the party if it is mishandled. It also has the potential of solidifying the personal and professional relation of the powerful three. All depends on how they handle it.
सतीश भाई नमस्कार! आपका ब्लॉग पढ़ा जो की एक सच्चाई है आपके ही साथ मुझे भी अवसर मिला है संगठन को नजदीक से देखने का और समझने का । आपने जो समीक्षा और विश्लेषण किया है पुरे प्रकरण का वह बहुत ही सूंदर तरीके से सिलसिलेवार किया है । आपको साधुवाद देना चाहता हूँ, और उम्मीद करता हु जो बजी आप पार्टी में चल रहा हैवह वास्तव में चंद जनो की वजह से बेवजह हो रहा है। आशा है जल्दी सुलट जायेगा जनता को आप व इन सभी से बड़ी उम्मीद हैं।
धन्यवाद।
सहमत बहुत सही लिखा आपने
शानदार लेख .पार्टी में अनुशासन के नाम पर व्यक्ति या विचार को तिरस्कृत नहीं करना चाहिए
very well written
bahut accha lekh likh hain pandit ji. lakin baar baar party may loktanter ko lekar uth rahi aawaaj ko kejriwaal kay virodh may n dekhkar uska sahi analysis karna jaruri hain .lakin jeetnay ka sabsay bada doshbyahi hay ke waha par aatmmanthan ke jagah nahi hoti
Mai Aapke Bato Se Sahmat Hai