राजेंद्र यादव : इतनी ख़ामोशी से गुजर जाना? ये तो ठीक नहीं…..
राजेन्द्र यादव नहीं रहे. ऐसा लगा जैसे कोई रेल किसी पुल से ख़ामोशी से गुजर गई हो. असम्भव! ऐसा तो नहीं सोचा था. रोज नई बहस, नए विवाद, नए झमेले का हिस्सा बना रहने वाला कलम का यह पुरोधा ऐसे ख़ामोशी से चला जायगा ये तो नहीं सोचा था कभी. उस से भी ज्यादा हैरत हुई जब तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया ने इस खबर को उतनी मुखरता से नहीं चलाया जितना किसी रियल्टी शो या कोमेडी शो की खबर को चलाया जाता है.
राजेन्द्र यादव की उपस्थिति उनके लेखन की वजह से तो थी ही लेकिन साथ ही साथ हिंदी साहित्य में उनकी जगह उनके क्रियाकलापों की वजह से कहीं ज्यादा थी. स्त्री विमर्श, दलित विमर्श का नायक बने लेखक राजेन्द्र जब सम्पादक के रूप में सामने आये तो प्रेम चंद की ‘हंस’ को नया रूप देने में भी सफल हुए और मंडल-कमंडल के दौर में महत्वपूर्ण राजनैतिक, वैचारिक और सामाजिक हस्तक्षेप करने में भी. ऐसे संक्रामक दौर में जब सोवियत के विघटन के बाद विचारधाराएँ ख़त्म होने के कगार पर थी और देश में नए सामाजिक और राजनैतिक बदलाव सर उठा रहे थे, तब राजेन्द्र यादव ने हंस को अपना हथियार बनाते हुए सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक चुनौतियों पर लगातार लिखा और ऐसा लिखा कि उन पर कई कई मुक़दमे तक हुए पर उनकी कलम ना रुकी, ना झुकी.
यही हाल स्त्री विमर्श और दलित विमर्श को लेकर उनके प्रयासों का रहा. उनके स्त्री विमर्श को शुरुआत में केवल देह विमर्श की नजर से देखा गया और दलित विमर्श में असहज लेखक समाज ने उन्हें साहित्य के लालू प्रसाद यादव तक का तमगा दिया. लेकिन राजेन्द्र यादव अपने विचारों पर अडिग रहे क्योंकि वे समाज के लिए एक सकारात्मक सोच का दायरा बनाना चाहते थे. कभी किसी संशय का शिकार उन्होंने अपनी कलम को होने दिया हो याद नहीं आता.
अपने लेखन को लेकर उनमे एक अटूट विशवास था जो अक्सर उनके वक्तव्यों में झलकता भी था. मसलन उनका यह कहना कि ‘लिखते वक्त संकीर्ण दायरे में रहना गलत बात है. बड़े बड़े मुद्दे उठाने चाहिए. अगर मेरे लिखने से विवाद पैदा होता है तो हो. उसकी चिंता मुझे नहीं है क्योंकि मैं जानता हूँ जो लोग विवाद पैदा करेंगे कल वो बहस करेंगे और परसों वे मुझसे सहमत होंगे.’ अपनी छवि और स्थापना की चिंता उन्हें कभी नहीं रही. अपने लेखन को लेकर यह विशवास ही था कि खुद पर हुए किसी मजाक या किसी कटु आलोचना से वे तनिक भी नहीं घबराए या बौखलाए. कभी भी नहीं. जवाब हमेशा दिया लेकिन बहस के अंत में विरोधी को गले लगाना कभी नहीं भूले.
ऐसे दौर में जब हिंदी साहित्य एक सी सोच वाले लेखकों का झुण्ड बनता जा रहा था राजेन्द्र यादव बहस का प्रतीक बनकर उभरे. उन्होंने अपने कट्टर से कट्टर विरोधी को भी हंस में जगह दी. यह केवल राजेन्द्र यादव ही कर सकते थे कि अपनी लड़ाई पूरे दिल से लड़ो और लड़ाई के अंत में विरोधी को घर खाने पर आने का निमंत्रण भी दो. हंस में पाठकों और लेखकों की चिट्ठियां पढ़ें आपको हैरत होगी कि कैसे कोई सम्पादक अपने खिलाफ इतने कटु प्रहार होने पर भी उस चिट्ठी को छाप सकता है. यही राजेन्द्र थे. अनिवार्य संवाद के प्रतीक! इसका मतलाब यह कतई नहीं है कि वे अहंवादी या सेंसिटिव नहीं थे. लेकिन उनका स्तर दूसरा था.
इसके अलावा लेखकों की एक बड़ी फ़ौज उनकी देन है हिंदी साहित्य को. अपने लेखन के लिए जितने निष्ठावान वे थे उससे कहीं अधिक दूसरे को लेखक बना देने के लिए उत्साही. ज़रा किसी में लिखने के लिए रूचि दिखी कि हर काम छोड़ कर बैठ जाते थे लिखने के टिप्स देने में. इसी तरह एक पूरी पीढी लेखकों की तैयार कर गए हैं वे. अक्सर मजाक में कहते भी थे ‘मेरे बाद कोई तो हो मेरे गुण गाने वाला’. लेकिन उनके निकट रहने वाला व्यक्ति कभी उनके गुण नहीं गा पाता था, उन्हें महान समझना मुश्किल था. बचपन की सीमा को छूता अल्हड़पन और हमेशा छाई रहने वाली मस्ती शायद इसका एक कारण रही हो.
उनके जीवन की साठवीं वर्षगाँठ पर आगरा में मित्रों के बीच दिया उनका वक्तव्य जस का तस आपके सामने रख रहा हूँ शायद यह कुछ मदद करे उन्हें समझने में. “हम लेखक अक्सर अपनी पांडुलिपि तिजोरी में रखते हैं ताकि नक़ल बिकती रहे और असल हमेशा बची रहे. यही रवैया हम जिंदगी को लेकर रखते हैं. असली चेहरा, असली चाल, असली चरित्र घर रख आते हैं और महफ़िल में आ जाते है सब नकली लेकर, जो अक्सर तारीफ़ बटोर लेता है. आज कहना चाहता हूँ मैं जो कुछ हूँ चाहे वह मेकअप हो, मुखौटा हो, प्रतिलिपि हो, या सचमुच अपना विस्तार हो सब आपका दिया है. मैं अपनी ईमानदारी से स्वीकार करता हूँ कि जो भी गलत खराब या अरुचिकर है वही असली राजेन्द्र यादव है”
उनकी स्मृति को प्रणाम!
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